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यमुनालहरी : ३
 

कवित्त


दानीन में दानी दीह करन महीप भयो। ध्यानीन में ध्यानी महादेव पन पाको है।
जैसें सत्यवादिन में राजा हरिचंद चंद। तैसे उपकार में दधीच तेज ताको है।
ग्वालकवि जैसे धर्म धारिन में धर्मयश। ज्ञानिन में ज्ञानी सुखदेवसिद्धि साको है।
बोरन में वीर बजरंग की प्रशंसा होत। नीरन में नीर वरभानु तनया को है॥८॥

कवित्त


मूल करनी को धरनी पें नर देह लैबो। देहन को मूल फेर पालन सुनी को है।
देह पालिबें कों मूल भोजन सु पूरन है। भोजन को मूल होनो बरसा धनी को है।
ग्वाल कवि मूल बरसा को है जजन जय। जजनसु मूल वेद भेद बहुनी को है।
वेदन को मूल ज्ञान ज्ञानमूल तरिबो त्यों। तरिबै को मूल नाम भानु नंदनी की है॥९॥

कवित्त


भरिबो चहेतो शील नैनन भराइ लेरे। ढरिबो चहेतो लोभ ढारि वाको ढपि।
हरिबो चहे तो चित्त हरि ले सुजानन के। धरिबो चहे तो ध्यान धरि फिरि जाको छपि।
ग्वालकवि टरिबो चहे तो टरि कूरनते। डरिबो चहे तो परधन ताको थपि।
लरिबो चहे तो तू लरे न क्यों कुढंगनतें। तरिबो चहे तो तू दिनेश तनया को जपि॥१०॥

कवित्त


जाने जमुना के तमना के हूँ न रहे ताके। साके होत प्रबल प्रभा के पुंज आन में।
चूर होत परि और अधीर फिर घूर होत। पूर होत धीर वीर होत हर सान में।
ग्वाल कवि भान के समान तेज भान होत। कीरति सुभान होत अरिहू[१] समान में।
गान होत लोकन बखान होत जानन में। मान होत जग में प्रमान देवतान में॥११॥

कवित्त


करो तुम जमुना अन्हैयन के राके रूप। केते रूप रावरे भये जलूस[२] जाल है।
केती बर बाँसुरी कियो है आय बांसुरी सु। ऐसे तो अवांसुरी लख्यो न कोळ काल है।
ग्वाल कवि वसन तनो में पीत वसन जु। केतो मन्द ईसन लसन पन पाल है।
केती वनमाल केती कौस्तुभ की माल शुभ्र। कुंडल विशाल बने केते नंदलाल है॥१२॥

कवित्त


भानु तनया के तीर तीरतें हजार कोस। कीनी जिमिदारन सुखेती लँदि रेलारेल।
धान बढ़ि आये कढ़ि आये बाल भेस भले। मढ़ि आये अन्न एक एक तेंसु मेलामेल।
ग्वालकवि परसि पुनीति पानी तेरो पौन। लागी जाय जिनमें झकोरै झार झेलाझेल।
चारभुज चंद्रिका चमके हार हारमाँहि। वारिन में विबुध[३] विमानन की ठेलाठेल॥१३॥


  1. अरिहु
  2. जलुस
  3. विबूध