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पृष्ठ:भक्तभावन.pdf/५०

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यमुना लहरी : १७
 

कवित्त अद्भुत रस


व्यापी अघ ओघ को महापी मदिरा को मंजु। कीनो परदेश को पयान रोज रारा में।
भोज करिबे को लई लकरी करीलन की। सो करील रावरे किनारे हुतो क्यारी में।
ग्वाल कवि ताको उड़ि धूम गयो नर्कन में। पुर्षन समेत पापी स्याम छवि धारी में।
सुमिरन सेवा ध्यान दरस परस बिना। मुकति दिवैया मैया जमुना निहारी में॥९१॥

कवित्त–शांत रस


अपनो न कोऊ बन्धु बहिन भतीजे सुत। भानजे न भाभिमि मुहयापन को सपनो।
तपनो तपन तेज तन कों अनित्य जानि। मोज करि ज्ञान की अदेह में न चपनो।
कफ्नो कुसंग तें कुढंगन तें ग्वाल कवि। झूठो व्यवहार माया जालतें न झपनो।
थपनो न मोंकों जग जाल के जंजालन में। याते अब नाम जमुना को रोज जपनो॥९२॥

कवित्त


जो लों रहे स्वास तो लो आस रहे जीवन की। स्वास गये फेर कछु दीखत न पार है।
काम क्रोध लोभ मोह मध्य मद गामी बन्यो। पर नारि गामी को न जान्यो काहू बार है।
ग्वाल कवि आज आप आपनी परोहे सबे। देख्यो जग बीच एक मतलब हो सार है।
डारि सब भार में कियो है निरधार एक। नाम जमुना को मोहि अमृत अधार है॥९३॥

कवित्त


काम की न काहू के न निज काम आवे काया। पंचभूत व्यापनी बनाई विधि आम की।
धाम की न धनि की न धन की न तन की तपन की न पात बात कोनी सब खाम की।
साम की न दाम की न दंडभेद छाया रही। वेद विधि जानी कवि ग्वाल जे अराम की।
छान को न माया बसु याम की हमें तो अब। राम की दुहाई आसा जमुना के नाम की॥९४‍॥

कवित्त


परनो कुसंग के न अंगन में मेरे मन। मन अनंगन एक छिन जरनो।
मरनो भलोई हिय मौन में मगनि भल। उज्जल अचल फेर छलतातें डरनो।
हरनो कुटुम्बन ते मोह कवि ग्वाल भने। ज्ञान अंकुशे ले करी क्रोधादिक डरनो।
करिनो हमें हौं सो कियोहो बहु घोस, पर। अब तो जरूर जमुना को ध्यान धरनो॥९५॥

अय षटऋतु वर्णन

कवित्त-वसन्त ऋतु


भानु तनया को अति तरल तरंगे ताकि। होत तेज अतुल प्रताप पल चार में।
बैठे सुरसंग में सु अंग में वंसती बास। वैसेई बिछौना जर्द जरद बजार में।
ग्वाल कवि कोकिल कलित कल रव राजे। त्रिविध समीर सुख सरस अपार में।
किंशुक कुसुंभ मी अनार कचनार चारु। फैल फैल फूलत बसन्त की बहार में॥९६॥