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१८ : भक्तभावन
 

कवित्त-ग्रीष्म ऋतु


पाई ऋतु ग्रीषम बिछायत बानाय वेष। कोमल कमल निरमलदल टकि टकि।
इंदीवर कलित ललित मकरंद रची। छूटत फुहारे नीर सौरभित सकि सकि।
ग्वाल कवि मुदित विराजत उसीर खाने। छाजत सुरा में सुधा छकि छकि।
होत छवि नीकी वृषभान नंदनी की सौंह। भानु-नंदनीकी ते तरंगन कों तकि तकि॥९७॥

कवित्त


सूरज सुता के तेज तरल तरंग ताकि। पुञ्ज देवता के घिरे नाके चहुँ कोय के।
ग्रीषम बहारे बेस छूटत फुहारैं धारें। फैलत हजारे हैं गुलाब स्वच्छ तोय के।
ग्वाल कवि चंदन कपूर चूर चुनियत। चौसर चंबेली चंदवदनी समोय के।
खास खस खाने खासे खूब खिलवत खाने। खुलिगे खजाने खाने खाने खुसबोय के॥९८॥

कवित्त-पावस ऋतु


पावस बहारन विलोके हरिलोक बीच। बेसुमार बीजुरी चमके चारु चकि चकि।
घोर घोर घुमिरि धनावली घमंडे करे। घर घर घोष पौन झर झर झकि अकि।
ग्वाल कवि माथे मोर चंद्रिका विराजे बेस। आठ पटरानी देव जोरे प्रीति थकि थकि।
होत छवि नीकी वृषभानु नंदनी को सौंह। भानु नंदनी के ते तरङ्गन को तकि तकि॥९९॥

कवित्त-शरद ऋतु


आइ रितु शरद सुहाई बैकुण्ठ बीच। ह्वै करि सुबेस तहाँराजे सुधा छकि छकि।
तारन बादलान के बिछौना सित शोभा देत। झिलमिलि झालरैं सुमोतिन की झकि झकि।
ग्वाल कवि चंद्रक कलित तन चंद्रिका में। तैसी मोर चंद्रिका चमके शीश चकि चकि।
होत छवि नीकी वृषमान नंदनी की सोंह। भानु नंदनी के ते तरङ्गन को तकि तकि॥१००॥

कवित


बेसक विहारी केसु धामन को धनी होत। बनी होत सरद जुन्हाई जहाँ जकि जकि।
चौसर चमेली के चंगेरिन में चुनियत। होरन ते कुण्डल जडाऊ करे धकि धकि।
ग्वाल कवि आसन असन बसनन बेस। सरसी सफेदशोभ चंदन ढरकि ढकि।
होत छवि नीकी वृषमान नंदनी की सौह। भानु नंदनी की ते तरंगन को तकि तकि॥१०१॥

कवित्त-हेमंत ऋतु


अति अभिमानी पाप ही में मति ठानी। निज नरक निशानी जाहि मारे दूत ठेलि ठेलि।
ताको भाग जागो जमुना को भयो दरस परस। कै के भुजचार चारु लोह्रीं है सकेल केलि।
ग्वाल कवि पीवत पियूष प्यार पूरे पगि। हाजिर हिमाम को किमाम सुख झेलि झेलि।
प्यारी रूपवंत इककंत छविवंत दोऊ। राजत हिमंत में इकंत भुज मेलि मेलि॥१०२॥