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४४ : भक्तभावन
 

कवित्त

आई कढि गंगे तू पहारविंद मंदिर तें। याही तें गुविंद गात स्याम हर ओरे हैं।
फेर धंसी निकस परी है तू कमंडल में। याही से बिरंचि परे पोरे चहूं कोरे हैं।
ग्वाल कवि कहें तेरे विरही विरंग ऐसे। मिरही तिहारे तें बखाने रिस ओरे हैं।
स्याम रंग अंगन तौ चाहियैं तमोगुनी को। पारी सीस ईसयातें अंग अंग गोरे हैं॥१२॥

कवित्त

मुलि वरदायनी गुबिंद पद जन्य मात। धन्य वे पुरस चे दरस तेरे लये हैं।
अधिक बग्यान के अंधेरे में परेचे हुते। ते कृपा तिहारी के उजेरे माहि छये हैं।
ग्वाल कवि कहें सत्वगुन को समुंद कियो। औगुन अनेकन के गढ ढाहि दये हैं।
रावर प्रवाह पारावार में तरेचे जन। ते ते भव पारावार पार होय गये हैं॥१३॥

कवित्त

आवें जे तिहांरे तीर काहू और मात गंगे। तिनतें करत वैर कौन से सयानतें।
उनके परम मित्र मोह औ अज्ञान आदि। तिन्है मारि डारत हो निज दर्शबान तें।
ग्वाल कवि कहे खोटे कर्म ये करोसो करो। याहू ते अधिक भोर करो मन मान तें।
नहायक अपारन को भेषि देत ऐसी ठौर। जहाँ से न आवे औ जगके मजान तें॥१४॥

कवित्त

चित्रगुप्त[१] जमसों पुकारे बारबार ऐसे। केसी करें कहा जाई कौन-सी नगरि में।
जत में न व्रत में न पूजन में पाइयत। जैसो जग जगमग जोर सुरसरि में।
ग्वाल कवि जाके नहवैया बड़े बलधारी। इच्छा अनुसारी लवें काहूना नजरि में।
केते हरिलोक जाइ केते हरि पास जाइ। केते हरि रूप बने केते मिलें हरि में॥१५॥

इति गंगास्तुति


  1. मूलपाठ––चीत्रगुप्त।