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५६ : भक्तभावन
 


मधुपुरी के कवित्त

पांति निगुरी है ते बनावत गुरी है ताहि। सुमति धुरी घोर दुरमति चुरी है।
पापन की पंगत झुरि है ओ दुरी है जमुना। ठुरी है सो जमेश जूकों बुरी है।
ग्वाल कवि उकति फुरी है सो मुरी है नाहि। मुक्ति अंकुरी है जमदूतन कों छुरी है।
धर्म की धुरी है षट पुरी की सुरी है जोर। जोति सी जुरी है ऐसी मंजुमधुपुरी है॥१८॥

वृंदावन के कवित्त

बरनि बरनि व्यासदेव भी थकित होत। बरन बरन वाक वानी बरनीन है।
विधि विधि बिधिहू विशेषन विशेखे देत। विप्रधर बने बाल गोप बरनत है।
ग्वाल कवि वन्दत विलोकि पतवेदन में। वेदन विदीरन बिनोद
वितरन है।
वृन्दारक वृन्द आइ वपुष वसिन्द बने। वृन्दावन चन्द को विदित बृन्दावन है॥१९॥

त्रिवेनीजी के कवित्त

बैल पैं चढ़त कभू फैल के गरुड़ चढ़े। हंस पैं दिखात कभू बिचरे अनूपिया।
पांच मुख सबकों दिखाई रहि जाय एक। फेर होय जाम चार-वदन सरूपिया।
ग्वाल कवि कबहू त्रिसूल-चक्र-वीणा धरे। बाल बने ज्वान बने बाल विरध विरूपिया।
तज्जूब तमासो त्रिवेनीजू तिहारो ताक्यो। तामेंजे अन्हात ते बनत बहूरूपिया॥२०॥

कवित्त

दारिद दरैनी सुभ संपत्ति भरैनी भर। पूरन सरेनी जसभक्ति रंग रैनी है।
चैनी जमराज की अचैनी जी जरैनी जोर। बोर देनी कागद गुपित्र के गरैनी है।
ग्वाल कवि न्हैयत तरैनी वितरैनी तेंज। मुक्ति परसैनी तिहूंपुर दरसेनी है।
पारन कों तापन को छैनी अति पैनी ऐनी। सुरमन सैनी सुख-दैनी ये त्रिवेनी है॥२१॥

अथ श्री कालीजी के कवित्त

कोप करि काली खड्ग म्यानतें निकालो ऐसी। कांति जो कराली सो न पैये भव-भाल में।
वाही दीह दैत्य पेंसु काटिके मुकट शीश‌ घरकाटि अश्वकाटि पैठि भूमि थाल में।
ग्वाल कवि कहे फेर अतल वितल काटि। छाँटि के सुतल करी गर्ज डहि काल में।
कादि के तलातल महातल रसातल कों। चारि के पताल जाय बाजी जल जाल में॥२२॥

कवित्त

ठाली मत बैठे वनवारी बुद्धिवाली इहाँ। विषै वनमाली तें न मिली भागवाली जो।
दाली बहु फसल उसास की पे हाली अब। त्यागी हरी दाली ममता की झुकि झाली जो।
लालो और लादिन की ढाली चहै ग्वाल कवि। राह ले निराली कही साहगुर हयाली जो।
खाली वैस वघिया उताली चली जात पातें। काली नाग लादि लेनी नफा की खुशाली जो॥२३॥