पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/१२८

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२६-एकान्त-ज्ञान एकान्त-ज्ञान वह ज्ञान कहलाता है जिसके द्वारा मनुष्य किसी एकान्त-स्थल में अपनी ठीक दशा को सोच विचार के अपने गुन- - अवगुन का श्राप ही आप वर्णन कर प्रसन्न होता है या दुःख करता है । एक दिन पञ्च महाराज देश-विदेश बहुत दूर-दूर घूमते यमुना के तट पर जा पहुंचे। वहाँ देखा तो एक ज्ञानी पंडित जी पलथी मारे, बैठे है. जिनके श्राकार और वेशभूषा से नख से शिख तक भन्यता' बरम रही थी। एक कागज हाथ में लिये थे, जिसमें कुछ भजन-सा लिखा था। पण्डित जी उस कागज को पढ़ और अपनी दशा के साथ उसके भावार्थ को मिलाय-मिलाय प्रसन्न और विस्मित-से होते थे । एक अद्भुत अनुराग से पूर्ण हो पण्डित जी कहने लगे-बाबा तुलसी दासजी के पदों में कुछ अनोखा ही रस है, यह भजन तुलसीदास जी के विनय को है। इसमें तो मेरा समस्त जीवन-चरित्र और कुल लक्षणं.. कुलक्षण भरा है, मानो मेरा जन्म-पत्र-सा लिख डाला हो। मैंने बड़ी- बड़ी पोधियों पढ़ी, पर अपने शालहोत्रिक चिह्न ऐमे कहीं न पाये। अच्छा एक बार प्रेम से इसे पढ़ तो डालू, दुःख-सुख तो लगा ही. रहता है। यहाँ तो सन्नाटा है, कोई सुनेगा भी नहीं, न मेरे छिपे हुये, कलक्षणों का सब मेद खुल जाने का डर है। । । । श्रा-का-या-(मुंह वाय के) दीनबन्धु मुखसिन्धु कृपाकर कारुपीक रघुराई। कमहुँ चोग रत भाग-निरत शहर पियोग-वश होई। . कबहे मोह-वश द्रोह करत पहु कबहुँ क्या अति साई। " का बीन मति हीन रारत का भूप अभिमानी।