पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/१२९

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परिपक्व बुद्धि या पक्का श्रादमी कर सकता है। दुनियादार लोग जब उसी को सिड़ी मान लेते हैं जिसमें वस्त्र के पहनाव मे और कोट आदि की काट-छांट में निराली पसन्द है तब इसे तो महा पागल समझेंगे। क्योंकि उसमें तो वे कोई ऐसी वात पाते ही नहीं जिसके तले तक वे दूब उसको थहा सके जैसा अपना लाम या, स्वार्थ-साधन के बदले वे उसमें प्रात्मत्याग Self-Sacrifice का जोश पाते हैं, केवल अपना ही फायदा देखने के बदले परोपकार की -'धुन उसे बंधी हुई है, संसार के अनेक सुखों मे अपने को फसाने के एवज विषय-वासना की ओर से उसे घिन है। हमारे यहाँ के योगसूत्र के जो अनक यम-नियम हैं उनका स्वाद ऐसे ही लोग चक्खे हुये हैं। ऐसे ही स्थलों में यह बात स्पष्ट होती है कि जो लोग बुद्धि के ऊँचे शिखर पर चढ हुये हैं उनके चित्त की विमल शांति और परम सुख की दशा यदि किसी से मेल खाती है तो उन्हीं से जो सर्वथा अल्पज्ञ या मूढतम हैं । इसी से यह श्लोक है-- . यश्च मूढ़तमो लोके यश्च बुद्ध परं गतः । द्वाविमो सुखमेधेते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः ॥ ' अगस्त १८88