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पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/१३१

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एकान्त-ज्ञान ११५ संयम अपराभव रोग रामपद आई । तुलसीदास या मेरी कबहुँ मूढ़ पंडित विडम्बरत कबहुँ धर्मरत ज्ञानी । कबहुँ देखिजग धनमथ रिपुमय कबहुँ नारिमय भासे । संसृति सन्निपात दारुण दुख बिनु हरि कृपा न नासे । संयम जप तप नेम धर्म व्रत बहु भेपज समुदाई। . 'तुलसिस' भव रोग रामपद प्रेमहीन नहि नाई। श्रीगोविन्दायनमो नमः-शुषो भाई ! तुलसीदास जी अपने इष्टदेवता रघुणाथ जी मे विनय करते हैं। अरे, विनय क्या मेरी शिफारिश करते हैं कि यह बेचारा गरीब पण्डित रामपद प्रेम से हीन है, इसका भवरोग नहीं जाना । ठीक है, जब मुझे अपने घरगृहस्थी की सुध पाती है। श्रागा-पीछा सोचता हूँ तो होश-हवास उड़ जाते हैं कि आगे को सिवाय मेरे कोई सँभालने वाले नहीं, छोटे छोटे लड़के, कच्ची गृहस्थी, दिन भर डाय-डॉय घूमते हैं, तब किसी तरह पेट पलता है । प्राधिदैविक. श्राधिभौतिक, आध्यात्मिक, त्रिविध ताप से दिन रात मुलस रहे हैं । कभी एफ छिन भर के लिये भी शरीर को स्वास्थ्य और मन को विशाम नहीं मिलता। दोपहर की ऐसी धूप मे इन जेठ-वैशाख के महीनों मे दो घण्टे श्रादमी की कौन कहे, पखेरू भी एक स्थान में पेड़ की ठण्डी छाया पाय विश्राम करते हैं। पर हम निरे वैशाख नन्दन बन इस जले पेट के कारन चक्र के समान घूमते ही रहते हैं। बिना दस जगह जाये जो नहीं मानता, यह भी एक देवी कृपणता है कि उसने हमें पसन दिया, मृग और श्वान के समान शीनगमन की शक्ति हमें न मिली, न गोध की सी दृष्टि हमें दी कि जहाँ कहीं स्वार्थ-साधन की कोई बात देखते, चट जा टूटते । बल- पौरुप नित्य घटता जाता है। एक चपल तृष्णा नित्य टटकी और तरुनाई को न पहुँचती जाती तो मेरा कहीं ठिकाना न लगता, लिस पर भी जब कभी मौत की सुध पाता है तब में बौराय उठता है और चाहता हूँ कि कोई ऐसा फकोरी लटका हाथ लग जाय कि सदा जवान