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पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/१३२

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१९८ भट्ट-निवस्थावली बढ़िया पकवान हलुत्रा पूरी खूब'छकने को मिला और इन्द्रियों प्रबल पड़ी तव संसार में सुख का मूल केवल स्त्रियों ही देख पड़ती हैं। फिर , उस विनय मे यह पद- "संतति सन्निपातदारुणदुख बिनु हरि कृपा न नासे।" . . सोचने की बात है यह संसार सन्निपातिक महाज्वर के दारण- दुःख का एक नमूना है। जिस विषय का लोलुप बनता हूँ उसी में छटपटाते हुये कचोट करना हूँ। भला यह दुख बिना हरि की पीयूष प्रवाहिनी कृपा के क्योंकर मिट सकता है जब तक मन-मानता धन न मिले या हसगामिनी मत्तमदालसा वामलोचना न हो ! जनेऊ की दोहाई अनेक जप-तप, संयम-नियम करते-करते थक पड़े, भांति-भांति , के इलाज किये, खातिर-खाह मतलव न निकला। तुलसीदास बावा . सच कहते हैं कि रामपद' प्रेम-हीन इस ब्राह्मण वेचारे का दरिद्र न. मिटा न मिश। ___ इसके अनन्तर पञ्चमहाराज पहुंचे और कहा पण्डित जी नमस्कार बस'नमस्कार-नमस्कार कह पण्डित जी भी उठ खड़े हुये और सारी मानसिक तरङ्ग यमुना की मन्द-मन्द तरङ्गों में जा मिली और मन में लजा गये कि इस दुष्ट ने कहीं मेरा गुस भेद मब सुन तो नहीं लिया। पाठकजन, समझे एकान्त-ज्ञान क्या, वस्तु है ? हमारे पण्डित जी एक दृष्टान्तमात्र है, संसार के मनुष्यमात्र पर यह सुघटित हो सकता है। फरवरी १६६२ - -