पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/१३३

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एकान्त-ज्ञान ११७ 'जब कभी सतोगुन का उदय होता है तब अपने इन भीतरी पापों को सोचता हूँ और अपने आत्मा की होनहार कुगति पर दया. पाती है कि हाय यह सब तो मेरा खयाली पोलाव था । केवल भाव दुष्ट होने के कलङ्क से कलङ्कित अलबत्ता हुआ और नफा कुछ न उठाया, पर. इसके कारन परलोक मे यमदूतों के लोहदण्ड अवश्य भुगतना होगा। जब कभी मेरे कुलच्छन सब खुल गये और हरमजदगी के कारन कहीं से निकाले गये तो मूढ़ नासमझ वन गये और अधिक चपकुलिश मे आये नो गिड़गिडाय ब्राह्मण वन माफी पाने का मुश्तहक अपने को साबित कर दिखाया। जब देखा कि मीधो अँगुली घी नहीं निकलता और स्वार्थसाधन नहीं बन पड़ता तब विडंबना फैलाते हैं । तुम्हारे पुत्र का व्याह अमुक कुलीन धनवान की लड़की से करा देंगे हमारा तुम्हारा वादरायण सम्बन्ध है; हम अमुक प्रसङ्ग में आपके साथी और सहायक हुये थे। तुलसीदासजी के विनय मे "कबहुँ धर्मरन ज्ञानी हमारे बड़े ही काम का है। हम तो एक धर्म ही को बाड़ किये हैं, यह धर्म ही सब के साथ जायगा, इसी से हम तन मन धन सब धर्म ही मे लगाये रखते हैं । इससे दो प्रकार के लाभ है-एक तो स्वगभोग की कामना शायद परलोक में कुछ होता हो तो सहायता मिलेगी। दूसरा लाम यह है कि संसार के सब लोग धर्माचरण मे प्रवृत्त देख के अच्छा समझते हैं और विशेष दान मान मिलता है । जव कभी वेदान्ती यजमानों से काम पड़ता है तब चिदानन्दरूपः शिवोहम्"-प्रह्मास्मि ब्रह्मास्मि की रट लगा देते हैं । बहुधा जब देखता हूँ कि संसार धन से भरा हुआ है तब अपने मित्र लोग से क्या-क्या सलाह नहीं लेता। जप मेरा कहा कोई नहीं मानते तब वे मुझे शत्रुरूप देख पड़ते हैं। बाबा तुलसीदास का यह कहना भी कि "कबहुँ नारिमय मासे" वहुत ठीक है । जब दूध-मलाई और यजमानों के घर से घी के तले बढ़िया-