पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/१३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२० • भट्ट-निबंधांवली गिड़गिडाता हुआ धीमी आवाज से बोला-मैं आपका नाम जानना चाहता हूँ, वर्णमाला के किस-किस अक्षरों को वह सुशोभित करता है। उसने कहा-मेरे कई एक नाम हैं। मिन्न-भिन्न समाज और संप्रदायवालों ने अपने अपने ढंग पर अपनी पसन्द और शचि के अनुकूल मेरा नाम धरा रक्खा है; किन्तु साधारण रीति पर सब लोग मुझे सिद्धार्थक कह कर पुकारते हैं । - इतने में गाड़ी अपने ठिकाने पहुँच गईदोनो उत्तरे । अपने नौकरों में से एक को इसने इशारे से बुला कर कहा-देखो बा । साहब को किसी तरह की तकलीफ न होने पावे। वह तो कोठी भीतर । चला गया। नौकर अपनी जात को कमीनंगी के मुतामिक जैसा इन लोगों का दस्तूर होता है कि मालिक की,आँख के सामने सब कुछ, मालिक आँख की ओट में हुआ कि हाहा-ठीठी टाल-बटाल । खास कर जव उनको इसका कुछ पता नहीं लगता | बुद्धिमानों ने इस विषय मे भांति भांति के शनुमान किये हैं और अकिल भिड़ाया है सही; पर . -ठीक ऐसा ही है यह निश्चय किसी को न हुया। सच तो यों है जब तक यह प्रवाह अपने पूर्ण वेग से चला जाता है तभी तक कुशल है।' जरा-सा मन्दं पड़ा या एक निमेष मात्र को भी सका कि कयामत या प्रलय का सामान जुट जाते देर नहीं लगती। योगाभ्यासी तथा वेदान्ती । मन को मार शान्ति शान्ति पुकारते हैं यह नहीं विचारते कि जगत के प्रवाह में पड़े हुए को शान्ति कहाँ ? जमशेद, दारा, सिकन्दर से प्रबल प्रतापियों की कौन कहे, राम, युधिष्ठिर संगने जो अंशावतार माने गये हैं, 'जगत् के प्रवाह में पड़ उनका भी कहीं ठिकाना न लगा। प्रातः कालीन गगन-मंडल के एक देश में नक्षत्र समूह-सदृश थोड़े समय तक जगमगाते हुए इस प्रवाह में पड़ न मालूम कहाँ बिलाय गये। __यह प्रयाह ऐसा प्रचण्ड है कि एक-दो मनुष्य की क्या, देश के देश को अपनी एक लहर में बटोर न जाने कहाँ ले जा फेकता है-