१२२ । भट्ट-निबन्धावली तब राग, द्वेप, बैर, फूट, ईर्ष्या, द्रोह, हिंसा, पैशुन्य, विषयलंपटता, 'चित्त की क्षुद्रता और कदर्यता बढ़ती है। काल-चक्र की वक्र गति हिन्दुस्तान मे उसी तमोगुण को प्रवाहित कर रही है जिसे अवनति, तनज्जुली, घटती, जघन्यता, पराधीनता, बिगाड़ चाहे जिस नाम से पुकारो तुम्हें अधिकार है। उनकी तो बात ही और है जो इसमें पगे हुये इसी को बड़ा भारी सुख मान रहे हैं। नहीं तो नरक के प्राणी भो हम ऐसों के पराधीन निकृष्ट जीवन से अधिक श्रेष्ठ और सुखी. हैं । यहाँ पर हमारे एक प्रिय मित्र का कहना हमें याद आता है जिनका सिद्धान्त है कि मरने के बाद रूह को फिर जन्म लेना पड़ता है। यह खयाल सच है तो हिन्दुस्तान के नारकिक समाज के बीच" नरक भूमि में जन्म ले पराधीन जीवन से सहारा के रेगिस्तान में भी 'स्वच्छन्द जीवन अच्छा । भागवत के उस श्लोक का लिखने वाला हमें इस समय मिलता तो कम से कम गिन के तीन गहरी चपत उसे जमाते, जिसने लिखा है कि स्वर्ग में देवगण भी सोचते हैं और इस बात के लिये तरसते हैं कि भारत की कर्म-भूमि में किसी तरह एक बार हमारा जन्म होता तो हम अपने जन्म को सफल करते । बड़े नामी लेखक जिन्होंने इस प्रवाह के अन्तर्गत किसी बुराई के सशोधन के लिये हजारों पेज लिख डाला प्रसिद्ध वक्ता जिन्होंने चाहा कि हम एक छोर से दूसरे तक अपनी मेघ गंभीर वक्त ता और वाज से उन बुराइयों को उच्छिन्न कर दें। पर उनका वह परिश्रम उस प्रबल प्रवाह सागर में एक बिन्दु भी न हुआ और उस उनके लेख और वक्रता का अणुमात्र भी कहीं असर न देखा गया, हमने बहुत चाहा कि बाल-विवाह कुरीत को अपने वाच से हटा दें। कोई अंक ऐसा नहीं जाता जिसमें दो-एक मजबूत धक्के इस कुरीत के प्रबल प्रवाह को न देते हों, किन्तु एक श्रादमी को भी अपने पन्य में न ला सके। प्रकृति के नियमों में कुछ ऐसी मोहिनी'
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