पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/१३७

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जगत्-प्रवाह जहाँ कई करोड़ मनुष्य बसते थे, जहाँ के लोग मनुष्य-जाति के सिर- मौर थे, जो देश सभ्यता की सीमा था, वह इस प्रचर्ड जगत्-प्रवाह मे ‘पड ,ऐसा अस्त हुआ कि उसकी पुरानी बातें किस्से-कहानियों का मजमून और चण्डूबाजों की गप्पें हो गई और जगत् का प्रवाह जैसे का तैसा बना ही रहा । प्राचीन भारत, प्राचीन पारस, प्राचीन यूनान, प्राचीन रोम, इसके निदर्शन हैं । इस प्रवाह मे पड़ा हुआ जिसे जो सवार है वह अपने गीत गाये जाता है, अपने स्थिर निश्चय और उत्साह से जरा मुंह नहीं मोड़ता। .. पुराने आर्यों ने इस प्रवाह को त्रिगुगा विभाग माना है । जहाँ जिस भूभाग में जब इस प्रवाह का वेग सीधा और मनुष्य-जाति के • अनुकूल रहा, प्रकृति के सब काम जब तक स्वभावअनुसार होते रहे तब तक वहीं सतयुग या सतोगुण का उदय रहा। वहां के स्थावर जंगम सजिंत पदार्थ मात्र मे सात्विक भाव का प्रकाश रहा। प्रत्येक मनुष्य यावत् अभ्युदय और स्वर्ग सुख का अनुभव करते हुये कृतकृत्य पूर्णकाम और प्राप्तकाम रहे । किसी अंश मे कहीं पर से किसी तरह - की किसी को त्रुटि का नाम न रहा। "कृतकृत्याप्रजाजात्यातस्मारकृतयुगंविदुः" ।' इसी को उन्नति, तरक्की, सभ्यता, उदार भाव, स्वतंत्रता जो चाहो सो कहो। ___ भारत मे न जाने के वार उस प्रवाह की प्रेरणा से चक्रवत् पलटा खाते सतोगुण का उदय हो चुका है। सतोगुण मे क्रम कम हानि और घटती का होना ही रजोगुण है, जिसके प्रादुर्भाव मे प्रमाद, आलस्य, तृष्णा, स्वार्थ, पर दृष्टि, हिंसा, अपने और परांय की निर्ख, बहुत विषम भाव आदि बढ़ जाता है । बिलाइत में इन दिनों रजोगुण बहुत ही बढ़ा -चढा है, बल्कि युग-सन्ध्या के क्रम पर तमोगुंण की तरक्की होती जाती है । वह प्रवाह जब तमोगुण के साथ टकराना है