पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/१५०

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१३ . भट्ट-निवन्धावली. अभी दो-एक बड़े जोर की कुज्झटिका और पाया चाहती हैं । भाग्य- हीन की समृद्धि के सदृश अष्टमी का चन्द्रमा अस्त होने पर था। इधर- उधर बिखरी श्वेत-कृष्ण मेघ-साला में सौदामनी क्रोधित कामिनी-सी लौक रही थी। सब ओरं सन्नाटा छाया हुत्रां था। केवल नव वारि समागन प्रफुल्ल भेकमण्डलो नाऊ. की बरात के ममानः सब अलंग अलग ठाकुर वन हुये टर-टर करते कानों की चैलियाँ उड़ाये डालते थे। इसी समय किती ने प्राय कडी खटखटाई । पूरन जो दिन कों चाहो बहीं रहे रात को जरूर उसे वहाँ रहना पड़ता था, पता हुआ पाया और किवाउ खोल दिया। यह आदमी जो इस समय त्रावा, लम्वे कद का डाढी रखाये था, गलमुच्छे थे, और गोल टोपी दिये था। अंदाज से मुसलमान मालूम होता था पाते ही बाबू गुलाचन्द्र को बड़े अदब के माथ झुक के सलाम किया । गुलाबचन्द्र मानो इसे परर्ख रहे थे, वल्कि इन्तजारी करते-करते उकता से गये थे, बोले- शेख जी, आपने तो बड़ी देर की। ' शेखजी-हुजूर हो ! देर तो बिला शक हुई। आप जानते हैं, ऐसे ऐसे काम क्या सहज मे हो जाते हैं। जरा देर तो हुई, पर चीज भी ऐसी है कि हुजूर को खातिर-खाह पसन्द श्रावेगी। याने मैं बहुत- दिनों से इस काम को कर रहा हूँ, पर ऐसी चिड़िया कभी मेरे कापे में नहीं आई। बहुत देर तका काना-फुस्की और कहकहे के उपरान्त शेष जी बोले-हुजूर, श्राप जानते हैं, ऐसी कौन-सी यात है कि जिसके लिये कोशिश करो और कामवानी न हो। गुलाबा , 'इसमें क्या शक है । इसी लिये तो मैंने श्राप "पुर्द इसे दिया । जैसी रूह वैरो फिरिश्ते होना चाहिये। अच्छा, तो

  • दर क्यों ? । पूरन में) पुग्न, श्रारास्त है ?

परन-जी मां, आपका हुक्म पाते ही मैंने सथ मज र गुलावजायाम ! अच्छा, तो इसका खातिरवाह नाम पावेगा।