पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/१५६

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भट्ट-निबन्धावली नैसर्गिको सुरभिणः कुसुमस्य सिद्धा . मूनि स्थितिनचरणैरवताननानि ॥ परचित्तानुरंजन के प्रकरण में इतना सब हम अप्रासंगिक गाग ' पढ़नेवाले कहेंगे व्यर्थ की अलापचारी मे यह पत्र की जगह छेक • । है। सो, नहीं परचित्तानुरंजन चरित्र-पालन का प्रधान अंग है। दूसरे के चित्त को अपनो मूठी में कर लेना सीखे हैं और इस हुनर प्रवीण है, वे चरित्रवानों के सिरमौर होते हैं । "स्माइल्स पान क्टर" में यही बात कई जगह कई तरह पर दी गई है । पार श्राप भी यदि चरित्रवान् हुआ चाहो, तो परचित्तानुरंजन मे । लगानो, सो भी कदाचित नापसंद हो तो एक बार हमारे इस को तो पढ़ लो । देव-वाणी अँगरेजी के लेख पढ़ने की आदत पड़ है। पिशाच-भाषा हिन्दी का लेख पढ़ने में अपनी हतक समझते तो लाचारी है। हमारे भाग मे करतार ने इसी पिशाचिनी की। करना लिख दिया है तब क्या किया जाय ? जून १९०६ - --