भट्ट-निवन्धावली टेढा पड़ गया, सुवह होते-होते चल बसे । साथ अपने एक पाई , भी ने ले गये। एक-एक पैसे के लिये जेर-बार है, रोज का भोजन - बड़ी कठिनाई से चलता है । दैव संयोग से एक ऐसा भाग्यवान् कुल- उजागर जन्मा कि उसने कुल की प्रतिष्ठा चौगुनी कर दी: मिट्टी छूते सोना होने लगा; वरसाती नदी की वाढ के समान धन-सम्नत्ति सब चोर से आ इकट्ठी होने लगी; दौलत की बाढ के साथ हौसिले और उमग भी बढ़ने तगे; संगीन पक्का मकान छेड़ दिया गया; . जड़ाऊ ठोस गहने पिटने लगे; जमीदारी की भी खरीद होने लगी। वात-बात में नफासत और वजेदारी की तराश-खगश पल्ले दर्जे तक पहुँचो । अकस्मात् वह पुरुष-रत्न जिसकी बदौलत यह सनं कुछ था चल वसा । सूर्यायस्त होने पर अन्धकार-सा छा गया, जिनके मिनाज कुतुबमीनार की उँचाई तक चढ़ गये थे अव कौड़ी के तीन तीन हो , गये । इस तरह इस कालचक्र की अद्भ त महिमा भूरी भरै भरी टरकावे की भांति कुछ समझ में नहीं आती। __ अब दूसरी ओर देखिये कुछ अकिल नहीं काम करती क्यों इस कालचक्र का चक्कर ऐसा टेढ़ा-मेढ़ा है। युग-व्यवस्था के सम्बन्ध में पुराण-वालों की पुरानो अकिल चाहे जो मान बैटी हो हमें तो कुछ ऐसा ही अँचता है कि यह युग-व्यवस्था भी इसी कालचक्र की विकराल गति है । जहाँ जब और इस चक्र का चकर अपने अनुकूल है, तहा और तब सतयुग है, उसका प्रतिकूल होना ही कलियुग है। भारत पर वह चक्कर , नितान्त प्रतिकूल है, इसलिये यहाँ घोर कलियुग धर्ते रहा है। पिलायत पर अनुकूल है वहाँ शुद्ध सत्ययुग गज करता है, वहाँ बालो में जो .. बुराइयां है वे भी भलाई में शामिल कर ली गई हैं । उसी कामाचा की प्रतिकुलता से हमारे में पचौ-गुची जो दो-रक भनाई थी वह भी ' बुराई और पार समझ ली गई। कालचक की अनुकूलता तथा प्रति- कूलता का इससे बढ़कर दूसरा उदाहरण और क्या होगा कि श्रादि
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