पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/३९

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उपदेशों की अलग-अलग बानगी के अधिक पतित होते जाने का खुला द्वार है । अफसोस वदमाशों ने जिसमें समझा कि यह कौम को कमजोर बिगड़ने का बड़ा अच्छा जरिया है उन्हीं-उन्हीं बातों को चुन-चुन कर सनातनधर्म में रख दिया अब इन दिनों के लोग "रिफार्म सुधार और संशोधन की दृष्टि से उन्हें श्रुति स्मृति से मिलाते हैं तो कहीं पता नहीं लगता कि किस मूल पर यह बुराई और कुरीति चल पड़ी बल्कि श्रुति और शास्त्रों मे जिसे मना किया, पाप और बुरा कहा, उसी को सनातन का सियापा गाने वाले बदमाशों ने विहित पुण्य और भलाई का काम कहा । इस घिनौने सनातन से दूर हटना हो अव कल्याण का मार्ग है, हमारे इस अन्तिम उपदेश पर जो दृढ़ होंगे वे दास्यभाव की वेड़ी से छूट बहुत जल्द प्रभुता पाने के अधिकारी हो जायगे, हाथ कंगने को पारसी क्या, जिसका मन हो आजमा के देख ले, इत्यादि । हमने बहुत तरह के उपदेश आप को कह सुनाया व उन पर चलना और उन्हें मानना आप के अधीन है। यपि शुद्ध लोकविरुद्ध न करणीयम् । न जानिये किस गोठिल अकिल वाले अहमक ने इस कहावत को प्रचलित कर रक्खा है। हम कहते हैं यदि शुद्ध है और लोक विरुद्ध है तो वह अवश्य करणीय है जब हमें.निश्चय हो गया यह शुद्ध है शान और अकिल दोनों इसे कबूल करती है तब उसके न करने में श्रागा पीछा की जरूरत क्या रही ? जैसा १५ वर्ष की औरत २५ वर्प के साथ व्याही जाया करे तो कौन सी हानि है ! शान भी इसमें सहमत है और अकिल कबूल करती है कि १५ वर्ष में भी अपनी परी उमर को पहुँच जायगी पुन्प भी तब तफ गदहपचीसी डॉक पढ़-लिख तैयार हो जायगा। अप-माँ को बोमन होकर अपना निर्वाह अपने नाप करने लायक हो गया तब सुख ने जीवन पार करेगा और पुष्ट रज-वीर्य के सन्तान पैदा हो देशके सौभाग्य के हेतु होंगे। पर यह लोक विरुद्ध होता