१४-नाम में नई कल्पना गाजीदीन, मसुरियादीन, गंगादीन, दुर्गादीन, सीतलादीन, माता- दीन, भगवानदीन श्रादि दीनवाले नामों की हीन दशा पर हमें भी . एक नई काल्पना सूझती है 'अक्सि अजीरन दीन । नाम कैसे होने -- चाहिये मो पहिले कहीं पर हम लिख चुके हैं। आज इस विषय को . प्रसग-प्राप्त देख पिष्ट पेषण की भांति फिर इस पर कुछ कहा चाहते हैं। नामकरण भी देश या जानि की तरक्की की क्सौटी है, जिस जाति में तरक्की रहती है उस जाति मे नाम भी उतने ही शिष्ट- संप्रदाय के रक्खे जाते हैं। हम लोग जैपी और वानो मे पीछे हटे है वैसे ही नाम धराने में भी। नाम के सुनते ही किसी घराने या जाति के बुद्धि-वैभव की पूरी परख हो जाती है । वंगदेशी भारत के और-और प्रान्तवालों की अपेक्षा अहाँ तक श्रागे बढ़े है और कितना अधिक बुद्धि का विस्तार इनमे है, वह उनके करण रसायन कोमल पदावली-संपुटित नामों ही से सूचित होता है। वही हम लोग कहाँ तक बुद्धि-विस्तार में दरिद्र हो रहे हैं, यह हम लोगों के छुन्ना, मुन्ना, कल्लू, गुदड़,, चिथरू आदि नामों से प्रगट है, वरन्' इसी बुद्धि का दरिद्रता ने इम लोगों में एक खपाल पैदावर रक्खा है कि घिनौना नाम रखने से बालक चिरजीवी होता है । इसी दुनिया पर ननकू मनकू, नरकू, सिटू, मुनमुन, बुलबुन, टल्लू , सहल, भोपत, भोंदू, मोदू, तिन मोड़ा, दनी, सुदामी आदि अनर्गल, कर्णकटु घिनौने नाम रख दिये जाते हैं। निस्से को है अकल का अजीरन और समझदारी का जौहर तो है। इसी जौहर ने नार ही की क्या, हमारी . न जानिये कितनी बातों का अपनी मूडी मे कर रखा है, जैमा त्रियों
पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/७५
दिखावट