पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/८

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केगी और इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतेन्दु जी के 'बाद हिन्दी के सुलेखकों में भट्ट जी का पद सर्वोच्च था। ___ सन् १८७७ ई० में प्रयाग में कुछ हिन्दी-प्रेमियों और कालेन के.-- विद्याथियों ने हिन्दी की उन्नति के लिए हिन्दी-प्रवद्धनी' नाम की. एक समा स्थापित की। सभा के कार्य-कर्ताओं में हिन्दी की उन्नति । और प्रचार के लिए बड़ा उत्साह था। अतएवं यह निश्चय किया गया कि एक पत्र निकाला जाय । सभा के संचालकों में कुछ धनी भी थे। उन्होंने इस राय को पसन्द किया और पांच-पाँच रुपये के शेयर बना कर तत्काल ही थोड़ा-सा रुपया इकट्ठा कर लिया गया और पत्र के निकालने की तैयारी हो गई। जिस समय समा का अधिवेशन होने वाला था संयोगवश भारतेन्दु जो प्रयाग में उपस्थित थे। हिन्दी- प्रवदिनों-सभा के कार्यकर्ताओं का हिन्दी-प्रेम देखकर वे बड़े प्रेसन हुए और लोगों के आग्रह करने पर उस अधिवेशन का सभापति होना उन्होंने स्वीकार किया। भारतेन्दु जी के प्राग्रह से तत्काल ही पत्र, निकालना निश्चित हो गया। उन्हीं की सम्मति से भट्ट जी उसके सम्पादक नियुक्त किये गये। पत्र का नाम 'हिन्दी-प्रदीप रखा गया और उसका मोटो हुश्रा- शुभ सरस देश सनेह पूरित प्रगट है वानंद भरे। वधि दुसह दुरजन वायु सो मणिोप सम घिर महि । ' . सूम भिवेक विचार उमति, कुमति सथ यामें जरै। "हिन्दी-प्रदीप प्रकाशि भूरसतादि भारत तम हरे। : - भारतेन्दु जी काही रचा दुरा यह पद्य था। यह मासिक पत्र भाद्रपद संवत् १९३४ तदनुसार सितम्बर १ -० से निकलना प्रारम्भ हुश्रा , - हिन्दी-प्रदीप के निकलने के कुछ ही समय बाद सरकार ने बनाकुलर प्रेस-एक्ट पास किया, जिससे भयभीत होकर हिन्दी प्रदोष,