६८ ' भट्ट-निबन्धावली' परस्पर की स्पर्धा में प्राय बाहरी प्रतिष्ठा बनाये रखने को इतना अपने वित्त के बाहर कर गुजरे हैं कि-भीतर ही भीतर कॉखते हुये कई वर्ष के लिये उनकी पोल न दूर होगी। ऐसाही हमारी कौम के सरगना, अग्रसर या मुखियाओं के कपटपूर्ण कापटिक अाचरणों में ढोल का पोल देख मन में, यही श्राता है कि जो घर के ढहानेवाले चौपटचरन ई वे किस भरोसे पर बाहर कौम के सुधारक और संशोधक तथा. रिफार्मर बनने का दावा बाँधते हैं। किसी प्रमाणिक लेखक ' ने ऐसा ही कहा भी है- Breakers at home cannot be the makers of nations. तात्पर्य यह कि जो अपने भीतरी चाल-चलन मे निपट मैले हैं, जिनमें अनेक कुत्सित कर्म देख घिन पैदा होती है, वे इन दिनों सभ्यता की नाक बने हुये देश के सुधार का बीड़ा उठाये हैं। अव- श्य ऐसों की करतूत सोपान के सहारे, समाज-उन्नति-शैल के परमोनत- शिखर पर चढ़ भारत-सन्तानों को जगत् उजागर. कर ' दिखावेगी और देश का वह कल्याण होगा जो किसी दूसरी तरह असम्भव था। 'घर पूँजी भांग नहीं, बाहर कागज का घोड़ा दौड़ाते लाखों का कारवार फैलाये हुगे बड़े मातवर ओर प्रमाणिक सेठ जी या शाहजी जगत् भर का जगडवाल अपने उपर छोढ़े मिती पर मिती बरावर खाते हुये दुलके चले जा रहे हैं; देव-इच्छा मे एक दिन पहिया रुक गई, मुंह पाय टाट उलट बैठ रहे । - हुण्डीवालों की नालिरों दराने लगी, माल-सराव कुर्क हो गया, अदालत का खर्चा भी न तरा। चाइते थे कि हुएडी मे का गया धन श्राधा ही मिले, कुछ तो बसल हो. पर वहाँ क्या था जो लेते ढोल मे पोल ! पढ़नेवाले कहेंगे, यह महाखल है, औरों की पोल भी खोलते इसका जन्म बीतता है, अपनी ओर नहीं देखता।
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