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पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/८३

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१६-होल के भीतर पोल ऊपर की यह कहावत छोटे वालक मे ८० वर्ष के बड्ढों तक मे जैसा प्रचलित है वैसा ही इसकी चरितार्थता भी सुस्पष्ट है। और किसी देश या जाति में चाहे इसके उदाहरण न मिलते हों या बहुत वम हों पर भारत तो इस समय इस कहावन का मानो उद्देश्य या ल्क्ष्य - सा हो रहा है, जहाँ की कोई ऐसी बात नहीं है जिसमे पोल न पाई जाती हो-ऊपरी भड़क, नुमाइशी चटकीलापन देख चित्त चमत्कृत होता है। कभी जी मे समाता ही नहीं कि भीतर किसी तरह की न्यूनता या पोल, पर ज्यों-ज्यों तले तक डूब थहाम्रो त्यो त्यों ढोल के भीतर पाल निकलती लायगी। दूर न जाय हाल का दिल्ली-दरवार इसका बहुन ही स्पष्ट उदाहरण है। एक - एक छोटे • बड़े राजा महाराजा तअल्लुकेदारों की धूमधाम देखते ही बनती थी, जिनका आडम्बर चमक-दमक और बाहिरी वैभव पर कदाचित् कुवेर भी सकुचाते रहे होंगे। इन्द्र और वरुप भी हार मान बैठे होंगे। लार्ड करजन महोदय के चित्त में भी यही समाया होगा कि निस्सन्देह भारत लक्ष्मा का केन्द्र-भाग है, कितना ही हो पा का धन कभी चुकने गाला न है, जो किसी कदर ठीक भी है। वहाँ की ऐसी कामधेनु धरती * जो अत्यन्त उर्वरा होने से कई करोड़ का धन प्रतिवर्ष उगला रती है ? दो वर्ष के लिये चिउटिया-टोन बन्द हो जाय और यहाँ का धन यही रहने । 'पावे, देश । देश सोने-चांदी से मद जाय । यस्तु, जिस बनायट और चमक-दमक पर नित नकराता था उसे तले तक सूव खोनो तो वही ढोल में गेल । इन राजा और तल्लुफेदारों में न जानिये कितने