७६ , भट्ट-निबन्धावली '. . को जननी के शरीर में से अपेक्षित सामग्री की सहायता से मनुष्याकार कर अन्त को पृथ्वी पर ले आती है। यह शंका हो सकती है कि. गर्भवास और जनन- प्रक्रिया का काल बालक को अनेक कष्ट और वेदनात्रों का - हेतु होता होगा। पर वास्तव मे ऐसा नहीं है। उसे कष्ट अणु मात्र भी नहीं होता, और यदि होता है तो तभी जब कि . प्रकृति अत्यांचरित हुई हो । प्रकृति उसको गर्भ से इस प्रकार मुक्त कर देती है जैसे मा सोते हुए बालक को अपनी गोदी से पालने में पौढ़ा देती है। वैद्यक-विद्या के' तत्ववेत्ताओं का यह सिद्धान्त है कि यदि जन्मावस्था से प्राणी वगवर प्रकृति के नियमानुसार ही रहे तो मरण भी उसका वैसा ही 'सुखाला हो जैसा कि जनन हुआ था। प्रकृति ,. उसकी देह को उसी तरह समाप्त कर दे जिस तरह श्रारम्भ किया था। अर्थात् प्राण का प्रयाण भी वैसाही सुगम हो जैसा प्रवेश या और वे "यातनायें जो मरण-काल में प्रायः देखी जाती हैं, कभी न हो। किसी को याद नहीं है कि प्राण उसके शरीर में कब और किस रीति से धसे और जो प्राकृतिक नियमो का सहज अनुगामी है उसे मरते समय भी यह न मालूम होगा कि उसके घट से गला घुट कर जी निकल रहा है, अर्थात् प्रकृति के लाडिले को मरने मे भी कष्ट नहीं है और इसी प्रकार के मरने को "मौत से मरना" कहते हैं। ___ "यह वात सर्वथा सत्य है कि जो कुछ शारीरिक कष्ट प्राणी । को होता है, केवल प्राकृतिक नियम-विरोध से और ये विरोध कभी-' कभी इतने प्रबल और इतने अधिक होते है कि प्रकृति की एक नहीं चलने देते और नियत काल के पहले ही प्राणी को उसकी गोदी मे छीन लेते है और छीनते समय एमा कष्ट अनुभव कराते हैं जिसे मरण-काल की वेदना कहते है और जिससे डर कर किसी ने कहा है- । भागप्रयाणसमये कफवातपितः कण्ठाघरोधनविधौ स्मरणं अत्तस्ते ।।
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