१८-प्रकृति के अनुसार जीवन-मरण 'ईश्वर ने प्रकृति के नियम ऐसे उत्तम किये हैं कि उनको लोक में यदि मनुष्य अपने जीवन की गाड़ी वे रोक चलने दे तो सन्देह नहीं उमे, इस संसार को "बाधि-व्याधि-पूरित" कहने का कदापि अवसर न मिले, वरन् वह जगत को केवल निरवच्छिन्न सुखों का अखण्ड भंडार ही देखे और बार बार पुष्पदन्त के राग मे राग मिला यही कहे- "इदंहि ब्रह्माण्डं सकलभुवनाभोगमवनम् ।" सच है, मनुष्य दुःख भोगने के लिये नहीं उत्पन्न हुआ, किन्तु सृष्टि के विविध दृश्यों मे उस अदृश्य बाजीगर के अद्भुत, अगम्य, और असंख्य कौनुकों को अपने कायिक और मानसिक दोनों नेत्रों से देख कर जो कुछ सुख प्राप्त होता है और वह सुख अमित है, अपार है, अनधि है, जिसका समझना हो मनुष्य के जीवन की सफलता है, उसकी प्राप्ति दुर्लभ नहीं रहती। परन्तु यह निश्चय रखना चाहिये कि यह सुख जो यथार्थ मे प्रकृति की सर्वोत्तम विभूति है, प्रकृति ही के नियमों से प्राप्य है इस निधि पर पहुँचने के लिये सिवाय प्राकृतिक रोड के और कोई सड़क नहीं है। परन्तु सावधानी की पावश्यकता है कि एक गाड़ी फिसल जाय, उलट जाय, गिर जाय और टूट कर नष्ट भी हो जाय तो आश्चर्य नहीं। श्राप देखते हैं कि जर से पिता का वीर्य विन्दु माता के उदर के स्थल विशेष में अधिष्ठित होता है; प्रकृति तभी से अपना कार्य श्रारम्भ कर देती है। नौ मास के नियत काल में उस विन्दु
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