१६-चढ़ती उमर ईश्वर की सृष्टि में चढती उमर भी क्या ही सुहावनी होती है, जिसकी आमद में क्या स्त्री क्या पुरुष कुरूप से कुरूप भी थोड़े समय ' के लिये अत्यन्त भले और सुहावने मालूम होने लगते हैं । लिखा । "प्राप्ते च पोडशे वर्षे सूकरीचाप्सरायते ।" , नई जवानी, नये खयाल, नई उमग, नई-नई सजधज, नये हौसले, चढती उमर के उभाड़ में सब नया ही नया, जर्जरित सड़े.. धुने पुराने का कही लेश या छुवाव भी नहीं। इस दशा में नयां को । जो पुरानों की कोई कदर जी मे न रही, तो इसमें अचरज की कौन सी वात हुई । नयों को अपनी ओर अश्रद्धा देख पुराने जो उन्हे अशा- लीन, धृष्ट और गुस्ताख रह बदनाम करें, तो यह पुरानों की पुरानी अकिल की खूबी है । यद्यपि वे खुद भी अपनी चढ़ती उमर मे ऐसे ही थे। लोहे तावे उतर अब बड़े सजीदा और बुजुर्ग नन वैठे, तो अव चटती उमरवालों में नुक्ताचीनी करते सव दोष ही देख मनाते हैं । यह नहीं सोचते कि इस नई उमर के उभाड़ में जो कुछ विनीत भाव नम्रता भलाई की ओर मुकावट और बुराई से घिन बनी रहे, वही गनीमत है, नहीं तो श्रादमी की जिन्दगी मे यह वक्त ऐमा नाजुक और अल्हड़पने का होता है कि उसके जोश में जो कुछ निकृष्ट काम श्रादमी न कर गुजरे, वही उसकी तारीफ है । यह उमर mami सन या बुराई के उगने और बढ़ने की प्ररोह-भूमि है जोत वो के तैयार किया जाता है, तब उसमें जो यिय वह दिन दूना रात चौगुना फनकता हुया वढताई गौरव न.. वालि... -
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