.१०२ भट्ट निबन्धावली अपनी हेठी सहना किसी को गॅवारा नहीं होता। दुर्भिक्ष-पीड़ित प्रजा में अनेक प्राधि-व्याधि, प्लेग और मरी से सब ओर उदासी और नहूसत का पूरा रंग जम रहा है। चहूँ ओर दरिद्रता का जहां साम्राज्य फैला हुआ है वहाँ विलाइत की नई-नई नफासत और भाँति-भाँति की चटकीली, मन को लुभाने वाली कारीगरी जो कुछ बच रहा; उसे भी ढोये लिये जाती है। क्षुधा को कष्टात्कष्टतर लिखने वाले इस समय होते तो न जानिये कितना पछताते क्या तअज्जुब सिर धुनने लगते। किन्तु दैवी-रचना बड़ी ही अद्भुत है, कुदरत के खेल का कौन पार पा सकता है इतने पर भी मोह का जाल ऐसा फैला हुआ है कि पड़, अपढ़, ज्ञानी, मानी सभी उसमे फंसे हुये हैं। क्षुधा के इस अपरिहार्य कष्ट से बचने की कौन कहे जान बूझ हम सब लोग उसमे अपने को छोड़ते जाते हैं। कितने हैं जिन्हे पेट भर अन्न खाने को नहीं मिलता सुख पूर्वक रहने को स्थान भी नही है तब जिन्दगी की और लजते और आराम की कौन कहै पर नरक से परित्राण पाने का पुत्र का पैदा होना जरूरी बात मान रहे हैं- "पुमानोनरकात् त्रायते इति पुत्रः" क्या कुओं की भाग है हम नहीं जानते इन गीदड़ों की सष्टि से, क्या नरक से उद्धार होता है। नरक से उद्धार इस अदृष्टवाद को कौन जानता है, किसी की चिट्ठी तो आई नहीं पर इन गीदड़ो की सृष्टि यहाँ घोर नरक में हमे अलबत्ता गेरती है। जिसमे औलाद बड़े इसलिये पुत्र का अर्थ नरक से उद्धार करने वाला तब के लिये था जब देश का देश एक कोने से दूसरे तक सूना और खाली पड़ा था और उसे श्राबाद करना पुराने आर्यों को मंजूर था। अब तो मनु का यह श्लोक हमारे वास्ते उपयुक्त है- "चतुर्णामपि भ्रातृणामेकश्चेपुत्रवान्भवेत् । तन पुत्रेण सर्वे ते पुनियो मनुरमवीत्" । .
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