पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/१०१

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कष्टात्कष्टतरंक्षुधा १०१ यावत् हलकाई का एकमात्र कारण उदर अपने मे नही रखता। भागवत मे व्यासदेव महाराज ने धनियों पर आक्षेप करते हुए लिखा है- "कस्माद्भजन्ति कवयो धनदुर्मदान्धान्" कवि और बुध जन-धन के मद मे अन्धे धनियों की सेवा क्यों करते हैं और अपना अपमान उनसे क्यों कराते हैं ? अपने इस दग्धोदर के भर लेने को सागपात और बन के फल फूल क्या उच्छिन्न हो गये हैं। पर वह समय अब कहाँ रहा जव कि सन्तोष की शान्ति मूर्ति का प्रकाश एक एक आदमी पर झलक रहा था, गाम्भीर्य और उदार भाव का सब ओर विस्तार था; हवस और तृष्णा-पिशाची का सर्वथा लोप था, किसी को किसी तरह की सकीर्णता और किसी वस्तु का अभाव न था; वैसे समय मे भी क्षुधा का क्लेश इतना असह्य था कि लिखने वाले ने इसे "कष्टात्कष्टतर" कहा- न कि अव इस समय जब कि कौड़ी और मुहर का फर्क श्रा लगा है। उस समय लोग स्वभाव ही से सन्तुष्ट, सहनशील, सब भाँति आसूदा, चचल मन और इन्द्रियों को अपने वश मे किये हुये थे। देश ऐसा रॅजा-जा था कि चारो ओर आनन्द-बधाई वज रही थी। नई-नई ईजादों से हवस इस कदर नहीं बढ़ी थी; किसी को किसी चीज़ की हाजत न थी तब नई ईजाद क्यों की जाती ? वही अब इस समय देखा जाता है कि लोगों में तृष्णा का क्षय किसी तरह होता ही नही, सन्तोष को किसी कोने मे भी कहीं स्थान नहीं मिलता; "मन नहि सिन्धु समाय” इस वाक्य को चरितार्थता इन्ही दिनों देखी जाती है। चंचल इन्द्रियों को दवा कर विषय-वासना से परहेज करने वाले या तो दम्भ की मूर्ति होंगे नही तो वे ही होंगे जिनमें शाइस्तगी या सभ्यता ने अपना प्रकाश नहीं किया। परस्पर की स्पर्धा या डाह ने यहाँ तक पाव फैला रक्खा है कि लोगों को हवस की कटीली झाड़ी में झोंके देती है। उदारभाव संकुचित हो न जानिये किस गुफा मे जा छिपा, दूसरे के मुकाविले जरा भी अपनी हानि या