पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/१०२

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. भट्ट, निबन्धावली मिलती थी वहाँ लोग मौन साधे. बसना बिछाये हाथ पर हाथ, धरे बैठे रहते हैं; केवल व्याज की या गाँव की,आमदनी से अमीरी ठाठ बाँधे हुये हैं । तात्पर्प यह कि कोई दूसरा उद्यम न रहा सिवाय खेती की उपज के जो हमारी निज की भोग्य वस्तु है उसे दूसरे को दे जब हम उसका मूल्य लेगे तो हमारे निज के भोजन में तो कसर पड़ती ही रहेगी। इसका विचार यहाँ पर छोड़े, ही देते हैं, कि, वही उपज जिसे हम कच्चा बाना (रॉ मिटीरियल) कहेगे हम से खरीद विलायत वाले, अपनी बुद्धि-कौशल से बदले मे हम से चौगुना कभी को अठगुना वसूल करते हैं और हम उन उन पदार्थों की. चमक-दमक तथा स्वच्छता पर रीझ खुशी से दिये देते हैं देश को निर्धन और दरिद्र किये डालते है । जैसा हमारे यहाँ हजार पति और. लाख पति रईसो में अग्रगण्य और माननीय होते हैं वैसा ही अमेरिका, जर्मनी, इगलैड आदि देशों मे करोड़पति है; लाख दो लाख का धनी तो वहाँ किसी गिनती में नहीं हैं । उन लोगों ने अलवत्ता कभी कान से भी न सुना होगा कि भूख का कष्ट भी कोई कष्ट है । यहाँ पुत्र नरक से उद्धार का द्वारा हो श्वान समूह को इतना वेहद्द- बढा दिया कि पेट, पालन भी दुर्घट हो गया। हमारे पढ़ने वाले हमे चाहे जो समझे हमे चाहे जैसी हिकारत की नजर से खयाल करें हम कहेंगे, यही कि देश की इस वर्तमान दशा हम लोगों की सृष्टि का बढना जीते ही नारकीय यातनायो का स्वाद चखना है। हम नहीं जानते कहाँ तक इनका पौरुषेय-विहीन-श्वान दल बढता जायगा जिसमें गर्मा कहीं नाम को नहीं बच रही । सच माघ कवि ने कहा है:- "पादाहतं यदुस्थाय मृानमधिरोहति । स्वस्या एवापमानेपि दहिनस्तद्वरं रजः" रास्ते की धूलि भी पांव से ताड़ित हो सिर पर चढ़ती है, जिससे प्रगट है कि अपना अपमान ऐसा बुरा हैं कि ऐसी तुच्छ वस्तु धूलि भी नहीं उने सह सकती और सिर पर चढ अपमान का बदला चुकाना