सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/११३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२८-मनुष्य तथा वनस्पतियों में समानता । मनुष्य तथा वनस्पतियों के शरीर की वनावट मे प्रकृति, ने ऐसी प्रकृष्ट चतुराई प्रगट की है जिस पर ध्यान देने से चित्त चक्रित होता है और इन दोनो में इतना मेल देखने वाले हमारे पुराने आर्य प्रकृति के कैसे बड़े उपासक थे कितना प्राकृतिक बातों को अभ्यसित (स्टडी) किये हुये थे यह बहुधा उनकी लिखावट से प्रगट है। मनु ने लिखा है- "शरीरजैः कर्मदोषैर्याति स्थावरतां नरः वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्स्यजातिताम् ॥" पाप तीन प्रकार के कहे गये हैं कायिक, मानसिक, वाचिक; मनुष्य जो शरीर के द्वारा पाप करता है उसको नरक की विकराल महा दारुण यातना भोगने के उपरान्त उस पाप से छुटकारा पाने को कुछ काल के लिये वृक्ष का शरीर धारण करना पड़ता है। वाचिक पाप किये हुये को नार्किक यातना भोगने के उपरान्त पक्षी या चौपाया का शरीर लेना पड़ता है और मानसिक पाप किये हुये को अन्त्यज अर्थात् डोम चमार आदि के शरीर में जन्म लेना पड़ता है। तात्पर्य यह कि मनु के इस लेख से यही पता लगता है कि मनुष्य का शरीर पेड़ अथवा वनस्पतियों के गढन से बहुत जोड़ खाता है। तब तो कायिक पापों का परिणाम पेड़ को कहा; मानसिक का परिणाम वृक्ष को न- कहा चिड़िये और चौपाये कहे गये । वृक्ष के लिये जैसा सड़ धुन जाने पर या भूजे जाने पर फिर नही जमते वैसाही आदमी मे भी देखा जाता है कि विषयीजन जो क्षीणवीर्य हैं या गरमी आदि रोगों से भुने हुये होते हैं उनके वीर्य की उत्पादिका शक्ति नष्ट हो जाती है। हम लोग जो काम हाँथ के द्वारा करते हैं वृक्षों, मे वही हाथ का काम