पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/१२४

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३२-बातचीत इसे तो सभी स्वीकार करेंगे कि अनेक प्रकार की शक्तियां जो वरदान की भाँति ईश्वर ने मनुष्यों को दी हैं उनमें वाक्शक्ति भी एक है । यदि मनुष्य की और-और इन्द्रियाँ अपनी अपनी शक्तियों से अविकल रहती और वाक्शक्ति उनमे न हाती तो हम नहीं जानते इस गूगी सृष्टि का क्या हाल होता । सब लोग लुज-पुंज से हो मानो एक कोने मे बैठा दिये गये होते और जो कुछ सुख-दुःख का अनुभव हम अपनी दूसरी- दूसरी इन्द्रियों के द्वारा करते उसे अवाक् होने के कारण आपस मे एक दूसरों से कुछ न कह सुन सकते । अब इस वाक्शक्ति के अनेक फायदों मे "स्पीच" वक्तृता और बातचीत दोनों हैं किन्तु स्पीच से बातचीत का कुछ ढंग ही निराला है। बातचीत में वक्ता को नाज़ नखग जाहिर करने का मौका नहीं दिया जाता कि वह एक बड़े अन्दाज़ से गिन गिन कर पांव रखता हुश्रा पुलपिट पर जा खड़ा हो और पुण्याहवाचन या नान्दीपाठ की भाँति घड़ियों तक साहबान मजलिस, चेयरमेन, लेडीज़ ऐड जेटिलमेन की बहुत सी स्तुति कर कराय तय किसी तरह वक्तृता का प्रारभ किया गया जहाँ कोई मर्म या नाक की कोई चुटीली वात वक्ता महाशय के मुख से निकली कि करतल. ध्वनि से कमरा गूंज उठा। इसलिए वक्ता को खामखाह हूँढ़ कर कोई ऐसा मौका अपनी वत्कृता में लाना ही पड़ता है जिसमे करतल- ध्वनि अवश्य हो। वही हमारी साधारण बातचीत का कुछ ऐसा घरेलू ढग है कि उसमे न करतलिध्वनि का कोई मौका है न लांगो को कहकहे उड़ाने की कोई बात उसमे रहती है। हम तुम दो आदमी प्रेम पूर्वक संलाप कर रहे हैं कोई चुटीली वात श्रागई हँस पड़े तो मुकिरा- हट से होठों का केवल फरक उठना ही इस हसी की अन्तिम सीमा है।