पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/१२५

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दौड़-धूप १२५ न इतनी अकिल न हिम्मत न शऊर की बाहर निकल कदम बढावे घर के भीतर ही रहा चाहे इस उतरा-चढ़ी में आय आपस मे कट मरते हैं । अफीम, भांग इत्यादि के ठीकों में ऐसा बहुधा देखा जाता है। इन अहमकों को उतरा-चढ़ी मे प्रजा का धन खूब लुटता है विदेशी राजा ठहरा, कर्मचारी ऐसी हिकमत काम मे लाते हैं कि उतरा-चढ़ी मे इन महाजनों का टेंडर हर साल बढ़ता ही जाय । ऐसा ही दो धनियों मे आपस की स्पर्धा हो गई तो दोनों छार मे मिल जाते हैं । दो विद्यार्थियों मे स्पर्धा का होना दोनों के लिये बहुत उपकारी है। एक दूसरे में स्पर्धा ही से यह संसार चल रहा है। संसार या संसृति के माने ही दौड़-धूप है और दौड़-धूप की अन्तिम सीमा प्रतिस्पर्धा या उतरा-चढ़ी है । कुलीनता का घमण्ड दूसरे प्रतिस्पर्धा इन दोनों से हमारा समाज जर्जरित होता जाता है। व्याह-शादियों मे करतूत का बढ जाना जिससे बहुधा लोग कर्जदार हो बिगड़ जाते हैं यह सब इसी उतरा-चढ़ी का प्रतिफल है। उतरा चढी "कपिटीशन न हो तो केवल दौड़-धूप (स्ट्रगल ) को बुरी न कहेगे। इधर हिन्दुस्तान का अधःपात आलस्य और सुस्ती ही से हुआ जब तक देश रजा-पुजा था लोग हाथ पर हाथ रक्खे पागुर करते बैठे रहे । विलायती पप के द्वारा जब सब रस खिंच गया तो अब चेत आई भाँति-भांति की दौड़-धूप में लोग अब इस समय लग रहे हैं पर वह पम्प ऐसा तले तक गड़ गया है कि हमारी दौड़-धूप का भी सारांश उसी पम्म में खिंच जाता है। हाँ इस कदर दौड़-धूप करने से पेट अलबत्ता पाल लेते हैं। इतना परिश्रम न करें तो कदाचित् भूखों मर जाय । धन्य भारत के वे दिन जब शान्ति-देवी के उपासक हमारे ऋषि मुनि अपने पुण्याश्रम मे आध्यात्मिक चिन्तन मे अपना काल बिताते हुये दौड़-धूप और फिकिर चिन्ता का नाम भी नहीं जानते थे। भारत की परम उन्नति का समय वही था। जुलाई १९०६