पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/१२६

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१२८ भट्ट निबन्धावली इस बातचीत की सीमा दों से लेकर वहाँ तक रक्खी जा सकती है जितनों की जमात मीटिंग या सभा न समझ ली जाय। एडिसन का मत है असल बातचीत सिर्फ दो मे हो सकती है जिसका तात्पर्य यह हुआ कि जब दो आदमी होते हैं तभी अपना दिल दूसरे के सामने खोलते हैं जब तीन हुये तब वह दो की बात कोसों दूर गई । कहा है - "षटकरणो भिद्यते मंत्र" दूसरे यह कि किसी तीसरे आदमी के श्राजाते ही या तो दोनों हिजाब मे आय अपनी बातचीत से निरस्त हो वैठेगे या उसे निपट मूर्ख और अज्ञानी समझ बनाने लगेगे । इसी से- "द्वाभ्यां तृतीयो न भवामि राजन्" लिखा है। जैसा गरम दूध और ठढे पानी के दो बर्तन पास-पास सांट के रक्खे जाँय तो एक का असर दूसरे में पहुंचता है अर्थात् दूध ठंढा हो जाता है और पानी गरम-वैसा ही दो आदमी पास पास बैठे हों तो एक का गुप्त असर दूसरे पर पहुंच जाता है। चाहे एक दुसरे को देखे भी नहीं तव बोलने की कौन कहे पर एक का दूसरे पर असर होना शुरू हो जाता है एक के शरीर की विद्युत दूसरे में प्रवेश करने लगती है। जब पास बैठने का इतना असर होता है तब बातचीत में कितना अधिक असर होगा इसे कौन न स्वीकार करेगा। अस्तु, अब इस बात को तीन आदमियों के संगम में देखना चाहिये मानों एक त्रिकोण सा बन जाता है तीनों का चित्त मानों तीन कोण है और तीनों की मनोवृत्ति के प्रसरण की धारा मानो उस त्रिकोण की तीन रेखायें हैं। गुपचुप असर तो उन तीनों में परस्पर होता ही है जो बातचीत तीनों में की गई वह मानों अंगूठी मे नग सा जड़ जाती है। उपरान्त जब चार श्रादमी हुये तव बेतकल्लुफी को बिल्कुल स्थान नहीं रहता खुल के वात न होगी जो कुछ बातचीत की जायगी वह "फार्मेलिटी"