भट्ट निबन्धावली पहुँचाना महा पाप है "पापाय परपीडनम्" तब रणक्षेत्र मे तो न जानिये कितने लोगों को पीड़ा कैसी वरन् उनका वध हो जाता है । श्राप के घर मे दो चार डाकू या चोर जबरदस्ती घुस आवे और दो चार सौ की पूंजी छीन ले जायँ दो चार मनुष्यो को घायल भी कर डाले तो आप को कितना क्रोध होगा और उन डाकुओं को फसाने और दण्ड दिलवाने का आप कितना यत्न करेंगे। यदि आप के छोटे से घर के बदले एक बड़ा सा गांव या देश हो और दो चार सौ की पूंजी की जगह लाखो या करोड़ो की जमा हो; दो चार डाकुओं के बदले सेना की सेना ने आक्रमण किया हो और दो चार घायल मनुष्यो के एवज़ हजारो लाखों की जान गई हो तो यह क्या अच्छा होगा? थोड़े से धन वा थोड़ी सी पृथ्वी के वास्ते लाखो की जान लेना या किसी बात के हठ मे पाय लाखो करोड़ो रुपया बरवाद करा देना क्या उचित होगा ? जितना रुपया प्रति वर्ष इन लड़ाइयो में व्यय किया जाता है वह न जानिये कितने आवश्यक कामो के लिये काफी होता। हमारे खेतिहर बेचारे बड़े बड़े कष्ट सह जो रुपया सर्कार को देते हैं वह रुपया बारूद और गोली के छरों मे फुकजाना क्या अनुचित नहीं है ? लोग कहते हैं; जैसे जैसे समय बीतता है हम अधिक अधिक सभ्य होते जाते हैं। क्या सभ्यता का यही चिन्ह है कि केवल पृथ्वी और धन के लोभ से सैकड़ो हज़ारों की जान गंवाई जाय ? खान्द लोग और फीज़ी टापू के रहने वालों को हम लोग असभ्य और जगली कहते हैं सो इसी लिये कि सुकृत, भलाई, अनुग्रह, दया, क्षमा इत्यादि गुण जो ईश्वर की ओर से मनुष्यों में दिये गये हैं और जिसके कारण वह सब जीवों में श्रेष्ठ माना गया है वे सब गुण उन जगली लोगों में नहीं हैं। हम जो उन्हें पापी, दुराचारी, असभ्य कहते हैं सो इसी लिये कि वे मनुष्यों को मार उन्हें खा जाते हैं। परन्तु उनको जो रणक्षेत्र में उदारता, दया और कोमलता को ताक पर रख सैकड़ों हजारों वरन् लाखों की जान ले विजय की खुर्शा मनाते हैं। उन्हें
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