पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/१३३

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३३-संग्राम श्राज कल जब लोगों का चित्त ट्रान्सवाल युद्ध के बारे मे चुभ रहा है- संग्राम है क्या ? और इसका क्या परिणाम होता है ? यह सब लिखा जाय तो हम समझते हैं असामयिक और अरोचक न होगा। संग्राम बहुत पुराने समय से होता आया है वेदों मे तो अध्याय के अध्याय ऐसे ही पाये जाते हैं जिनमे व्यूह-रचना एक एक अस्त्र-शस्त्र के अभिमत्रण और उनको शत्रुओं पर प्रयोग करने के क्रम और तरीके लिखे हुये हैं। और अब इस समय तो यूरोप और अमेरिका मे रोज़ नई नई तरह की बन्दूक और तोपों के ईज़ाद से युद्ध करने का हुनर तरक्की के ओर-छोर को पहुंचा हुआ है। यद्यपि सब दार्शनिक ज्ञानी विद्वान् इसमें एक मत हो कह रहे हैं कि लड़ाई करना बुरा है तथापि खेद का विषय है कि यह कभी बन्द न हुई बरन् ज्यो ज्यो सभ्यता बढ़ती जाती है डैना माइट, आदि, नये नये तरह की पौडर और लड़ाई की कले निकलती आती हैं । युद्ध के नये नये अस्त्र शस्त्र मे सुघराई होती जाती है और सग्राम मे मृत मनुष्यों की संख्या बढती जाती है। कुछ लोग कहेंगे सग्राम मे जो शत्रु के सन्मुख तन त्यागते हैं वीर गति पाते हैं और सूर्य मण्डल भेद कर सीधे स्वर्ग को जाते हैं । "द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्य मण्डलभेदिनौ । योगेन त्यजते प्राणान् रणे चाभिमुखे हतः ॥" इसलिये कि बहुधा लोग अपने देश या जाति के लिये प्राण देते हैं और फिर युद्ध करना क्षत्रियों का मुख्य धर्म है 'क्षात्र धर्म की थाप रखना अपना परताप । चाहो आगे आवे बाप । तहू चाप खैचना" जव लड़ना क्षात्र-धर्म की थाप अर्थात् प्रतिष्ठा है तो इसमे क्या बुराई है। ऐसों से हमारा यह प्रश्न है कि जब किसी को पीड़ा या दुख --