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पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/१३४

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भट्ट निबन्धावली होगी। यदि ऐसा होता कि कभी कभी कुछ मनुष्यों में लड़ाई हो जाती तो हम उसको मनुष्य का एक स्वभाव समझते परन्तु इन दिनों लड़ाई तो एक बड़ा भारी गुण समझा जाता है जिसका यूरोप की सभ्यजाति बड़ा पोषण कर रही है । जहाँ अनेक शिल्प और विज्ञान मे वे लोग एकता हो रहे हैं वहाँ लड़ने भिड़ने के सामान और हुनर मे भी तरक्की के अन्त के छोर तक पहुँच गये हैं। और शिल्प-विज्ञान की तरक्की की तरह इसकी तरक्की भी सभ्यजाति का एक अङ्ग हो रही है। ऐसी समझ रखने वालों को हम मूर्ख नही तो क्या कहें ? आदमी की जान और शरीर कोई कागज़ का पुतला नहीं है जिसके नाश होने या बनने मे कुछ हानि नहीं है। एक समय एक बड़े प्रतिष्ठित राजनीतिज्ञ ने कहा था "इस बात की कि कितने आदमी 'लड़ाई में मारे जाते हैं मुझे कुछ भी परवाह नहीं है। मनुष्य को तो एक दिन भरना ही है तब इसके विचार का क्या अवसर है कि वह कब मरा और कैसे मरा था" मुझे तो कुछ ऐसा जान पड़ता है कि जिस महाशय ने यह कहा था उन्होंने मनुष्य के अनमोल जीवन का कितना मूल्य 'है कभी नहीं सोचा। कहने को चाहो जो जैसा कह डाले किन्तु उनके चित्त मे तो पूछो जिनके पति जिनके पिता जिनके भाई और जिनके लड़के मारे गये हैं; उन अवोध बालक-बालिकाओं से तो पूछो जो कल यानन्द में मम खेल रहे थे अाज अनाथ हो खाने तक को तरसने लगे; उस कुलीन अवला से पूछो कल जो पति की सेवा टहल और दर्शन ने जन्म सफल मानती थी अाज रंडापे का दुःख झेलते अपना जीवन उभारू मान रही है। सारा जगत् उसके वास्ते काँटा हो रहा है। न जानिये कितने नई जवानी के खिलते हुये फूल गोली और छर्गे की चोट से टुकड़े टुकड़े हो गये तलवार और बरछी के श्राघात से ऐठ के रह गये । कभी एक मनुष्य को भी अपमृत्यु गाड़ी इत्यादि से -दव के मरते देख कितना खेद होता है किन्तु ऐसे रणक्षेत्र को देख