पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/१३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३८
भट्ट निबन्धावली

"शस्त्रविद्या स्वभावेन सर्वाभ्योस्ति महीयसौ।
शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्रचिन्ता प्रवर्तते॥"

इन दिनों स्वार्थी, उन्मत्त, अविवेकी, कुटिल राजनीतिज्ञों ने संग्राम को ऐसा घिन के लायक कर दिया कि जिससे सिवाय हानि के लाभ का कहीं लेश भी नहीं है। ईश्वर एसों को सुमति दे जिसमें वे अपनी कुटिलाई के एच-पेच काम मे न लाया करे तो संग्राम न हुआ करे लाखों जान कृतान्त के कर-ग्रहण से बची रहे और प्रजा का कल्याण हो।

अप्रैल, १६००
 


--------