पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/१४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

भट्ट निबत धावली कला कहीं नाम को भी न रहीं। यूरोप के नये-नये शिल्प चटकीलेपन और नफासत से समाज के मन को आकर्षित कर रहे हैं । पहिले का अगि बाण, जम्भकास्त्र, मोहनास्त्र नाममात्र को पोथियों मे लिखे पाये जाते हैं अब इस समय गिफर्डगन के सामने सब मात हैं। इसी तरह एक धर्म गया दूसरा आया, एक जाति अस्त हुई दूसरे के नवाभ्युत्थान की पारी आई । सारांश यह कि प्राचीन को मिटाय नवीन का प्रचार सृष्टि का यह एक अखण्ड नियम हो गया है। जिस नियम का मूल कारण यही है कि लोगो से नई बात की चाह विशेष रहती है और इसी चाह के बढ़ने का नाम तरक्की और उन्नति है। यूरोप इन दिनों नई ईजादों के छोरको पहुँच रहा है जिसका फल प्रत्यक्ष है कि यूरोप इस समय सभ्यता का शिरोमणि और जगतीतल में सबों का अग्रगण्य है। हमारे हिन्दुस्तानी वाप-दादों के नाम सती हो रहे हैं, परिवर्तन के नाम से चिढ़ते हैं, पाप समझते हैं तब कौन आशा है कि ये भी कभी को उभड़ेंगे। ___ बुद्धिमान राजनीतिनों का सिद्धान्त है कि दुनिया दिन-दिन तरक्की कर रही है। समुद्र की लहर के समान तरक्की की भी तरल तरंग जुदेजुदे समय जुदे-जुदे मुल्कों में आती जाती रहती हैं । इसमें संदेह नहीं बूड़े भारत में सबके पहिले तरक्की हुई इसलिये कि देशों के समूह मे हिन्दुस्तान सबसे पुराना है; उन्नति, सभ्यता, समाज -ग्रन्थन का बीज सबके पहिले यहीं बोया गया । मिश्र, यूनान, रोम श्रादि देश जो प्राचीनता में भारत के समकक्ष हैं सबों ने सम्यता और उन्नति का अंकुर यहीं से ले ले अपनी-अपनी भूमि में लगाया; उस पौधे को सींचसींच अति विशाल वृक्ष किया और यह वृक्ष यहाँ तक बढ़ा कि पृथ्वी के आधे गोलार्द्ध तक इसकी डालियाँ फैली । रोम का राज्य किसी समय करीब-करीब समय यूरोप, अर्द्धभाग के लगभग याफ्रिका और एशिया पर आक्रमण किये था । ग्रीस और रोम की उस पुरानी उन्नति का कहीं अब लेशमात्र भी उन मुल्कों में पानी नहीं है किन्तु विद्या,