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पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/१७

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३-आत्मत्याग आत्म-निर्भरता के समान प्रात्म-त्याग भी देश के कल्याण का प्रधान अङ्ग है । हमारे देश में प्रात्मत्याग का बीज भी वैसा ही क्षीण हो गया है जैसा यात्म निर्भरता का। अचरज है जहाँ के इतिहासो मे दधीचि, शिवि, हरिश्चन्द्र, वलि, करण इत्यादि महापुरुषो के अनेक उदाहरण से आत्म- त्याग की कैसी उत्कर्पता दिखलाई गई है, जिन महात्माओं ने दूसरो के लिये अपने अमूल्यजीवन को भी कुछ माल न समझा वहाँ के लोग अब कहाँ तक स्वार्थपरायण पाये जाते हैं कि जिसकी हद्द नहीं है । बहुधा वेटा भी बाप के मुकाबिले तथा बाप बेटे के मुकाबिले किसी बात मे जरा अपना नुकसान नही बरदाश्त किया चाहता। इस अश में सीधे-सादे हमारे पुराने ढर्रे वाले फिर भी सराहना के लायक है जिनमे शील-सकोच से, कभी को धर्म के खयाल से किसी न किसी रूप मे अात्मत्याग की जड़ नहीं टूटी वरन् कुछ न कुछ इसकी वासना तरह घिसलती हुई चली जा रही है। नई तालीम तो आत्मत्याग के लिये मूलोच्छेदी कुठार हुई । हुआ चाहे जो इसके बानी-मुवानी हैं उनमे जब यहाँ तक स्वार्थपरता है कि स्वार्थ के पीछे अन्धे दया, सहानुभूति और न्याय को बहुत कम अादर दै हमारे नस-नस का रस निकाले लेते हैं तो उनकी दी हुई तालीम मे आत्मत्याग का वह गुण कहाँ से श्रा कता है जिसके उदय होने से अपनापन का नीचा ख्याल या तो जाता ही रहता है या यह इस हद्द को पहुंचता है कि जगत् भर उसे सब अपना ही दीखता है पराया उसको कोई रही नहीं जाता। 'उदारचरितानान्तु वसुधैव कुटुम्बकम्' हम लोग जो इस समय सब भान क्षीण हो गये हैं इसलिये "नीणा नराः निष्करुणा भवन्ति" इस वाक्य के अनुसार हममें प्रात्मत्याग की