पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/२३

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हृदय २३ 65 करती हे पर उसकी थाह पाने की क्षमता नही रखतीं। जब अपने ही हृदय का जान अपने को नही है तो दूसरे के मन की थाह ले लेना तो बहुत ही दुस्तर है। तभी तो असाधारण धीमानों की यह प्रशंसा है "अनुक्तमायूहति पण्डितो जनः" कि बिना कहे वे दूसरे के हृदय का भाव कभी-कभी लख लेते हैं । तो भी निस्सन्देह दूसरे को हृदय की थाह लगाना बड़ा दुरन्त है। न जाने इस हृदयागार का कैसा मुंह है पण्डित लोग कुछ ही कहे हमारी जान तो इसका स्वरूप स्वच्छ स्फटिक की नाई है। इसी से हर चीज़ का फोटू इसमे उतर जाता है ! जिस भाति सहस्राश की सहस्र-महस्र किरणे निर्मल बिल्लौर पर पड़कर उसके बाहर निकल जाती हैं इसी तरह सैकड़ो बाते, हजारों विषय जो दिन रात में हमारे गोचर होते है हृदय के शीशे के भीतर धसते चले जाते हैं और समय पर ख्याल के काग़ज़ मे तस्वीर बन सामने आ जाते हैं। इसमे कोई जल्द फहम होते हैं कोई सौ-सौ बार बताने पर नहीं समझते । उनका हृदय किसी ऐसी चिन्ता-कीट से चेहटा रहता है कि वह आवरण होकर रोक करता है जिस तरह अक्स लेने के लिये शीशे को पहिले खूव धो-धुवाकर साफ कर लेते हैं इसी भाति सुन्दर बात को धारण के लिये हृदय की सफाई की बहुत बड़ी आवश्यकता है। राजर्षि भर्तृहरि का वाक्य है "हृदिस्वच्छावृत्तिः श्रुतमधिगतैक- वृतफलम" अर्थात् हृदय स्वच्छवृत्ति से और कानशास्त्र श्रवण से बड़ाई के योग्य होते हैं । यह स्वच्छ थैली जिन के पास है वही सदाशय हैं, वही महाशय हैं और वही गम्भीराशय हैं उन्हे चाहे जिन शुभ नामो से पुकार लीजिये । और जिन की उदरदरी मे इसका अभाव है वे ही दुराशय, तुद्राशय, नीचाशय, अोछे, छोटे और पेट के खोटे हैं । देखो सहृदय के उदाहरण ये लोग हुये हैं। सूर्यवंश शिरोमणि दशरथात्मज रामचन्द्र को करालो कैकेयी ने कितना दुःख दिया था धारह वर्ष वनके असीम आपदो का क्लेश, नयन श्रोट न रहने वाली सती सीता का विरहजन्य शोक, स्नेहसागर पिता का सदा के लिये