सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भट्ट निबन्धावली वियोग; ये सब सहकर उनका शुद्ध हृदय उस सौतेली मां से पुनर्मिलन में समर्थ हुआ। आज कल के अोछे पात्र मां-बाप की तिरछी आँख की आँच न सहकर कह बैठते हैं कि हमारा तो उनकी तरफ से हिरदै फट गया। प्रिय पाठक, श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज भी एक बड़े विशद और विशालहृदय के मनुष्य थे, जिन्होंने लोगों की गाली-गलौज, निन्दा-चुगली आदि अनेक असह्य बातो को सह कर उनके प्रति उपकार से मुंह न मोड़ा। आज जिनका विपुल हृदय मानो निकल कर सत्यार्थ प्रकाश बन गया है। एक बार यहाँ के चन्द लोगों ने कहा कि वह नास्तिक मुंह देखने याग्य नहीं हैं। यह सुन कर कुछ भी उनकी मुखश्री मलिन न हुई और किसी भांति माथे पर सिकुड़न न आई । गम्भीरता से उत्तर दिया कि यदि मेरा मुँह देखने में पाप लगता है तो मै मुँह ढाँप लेगा पर दो दो वाते तो मेरी सुन ले । बस इसी से आप उनके वृहत् हृदय का परिचय कर सकते हैं। किसी ने सच कहा है:- "सज्जनस्य हृदयंनवनीतं यद्वदन्ति कवयस्तदलीकम् । अन्यतेहविजसत्परितापारसज्जनो द्रवतिननवनीतम् ॥" एक सहृदय कहता है कि कवियों ने जो सज्जनों के हृदय को उपमा मक्खन से दी है वह वात ठीक नहीं है। क्योंकि सत्पुरुष पराया दुःख देख पिघल जाते हैं और मक्खन वैसा ही बना रहता है । वस प्यारो, यदि तुम सहृदय होना चाहते हो तो ऐसे उदार हृदयों का अनुकरण करो, ऐसे ही हृदय दूसरो के हृदयो में क्षमा, दया, शान्ति, तितिक्षा, शील, सौजन्यता, सच्ची श्रास्तिकता और उदारता का वीर्यारोपण करने में योग्य होते हैं और सच्चे सुदृद कहाते है। (भारत सुदशाप्रवर्तक से) - श्रश्नूबर, १८८७