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पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/२५

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५-मन और प्राण मनुष्य के शरीर मे ये दोनों बड़े काम के है। ऐ हमने क्या कहा मनुष्य के शरीर में है ? और है तो कहाँ पर हैं ? आप कहेंगे यह प्राण वायु गिनती मे पांच है और सपूर्ण शरीर भर में व्याप्त है। हृदि प्राणो गुदेऽपानः समानी नाभि मण्डले । उदानः कण्ठ देशस्थो व्यान. सर्व शरीरग.॥ हृदय मे प्राण वायु है, गुदा मार्ग से जो हवा निकलती है उसका नाम अपान है, समान नामक वायु का स्थान नाभि मण्डल है, कण्ठ देश मे जो वायु है जिस से डकार होती है वह उदान वायु है और व्यान नामक वायु है सो सपूर्ण शरीर मे व्याप्त रह रक्त-सचालन करता है । अस्तु, प्राण की व्यवस्था तो हो चुकी अव बतलाइये आप का मन कहाँ है हृदय मे या मस्तिक में या सर्वेन्द्रिय में फैला हुआ होकर जुदी-जुदी इन्द्रियो के जुदे-जुदे कामो का ज्ञान मन स्वय अनुभव करता है। लोग कहते हैं जो कोई किसी का प्राण ले उसके बदले में जब तक उसका प्राण भी न लिया जाय तब तक बदला नही चुकता किन्तु मन जब कोई किसी का ले लेता है वह उसी का हो जाता है। ईश्वर न करै हमारा मन किसी पर पा जाय तब हम को उसका दास बन जाना पड़ेगा । न विश्वास हो किसी नवयुवा, नवयुवती से पूछ लो जिसका मन बहुत जल्द छिन जाता है । ससार मे यही एक ऐसी वस्तु है कि हरजाने पर फिर नही लौटायी जा सकती है। सच पूछिये तो कवियो को प्रणयिनी- प्रणयी यही दोनों के आपस मे मन हर लेने के किस्सों का कविता के लिये बड़ा सहारा है । भवभूति के 'मालतीमाधव मे, कोकिल-कण्ठ जयदेव के 'गीत गोविन्द' मे, महा कवि श्री हर्प के 'नैषध' मे, सम्पूर्ण ग्रन्थ भर मे यही है और अनेक अनूठी उकि, युक्ति की नई-नई छटाये म०नि०-२