पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/४२

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४२ भट्ट निवन्धावली वचो लोकालभ्यं कृपणधनतुल्यं मृगहशः। पुमानन्य कान्ताद्विधुरिव चतुर्थी समुदितः ॥ कुलवती स्त्रियों का घर से बाहर पाँव काढ़ना वैसा ही है जैसा साँप के फन पर पाँव रखना, अपने घर से किसी दूसरे के घर कभी जाना तो मानो द्वीपान्तर मे जाना है। उनके मुँह की बोल दूसरे के कान को सुनने के लिये वैसा ही अप्राप्य है जैसा सूम का धन दूसरे को नहीं मिल सकता। उनका किसी परपुरुष की ओर निहारना वैसा ही है जैसा भादो के चौथ के चाँद का देखना। और भी रस मंजरी में स्वकीया का उदाहरण इस भौति कुलवती स्त्रियों के बर्ताव के सम्बन्ध मे दिखाया है- "गतागतकुतूहलं नयनयोरपांगावधि स्मितं कुलनतव मधर एव विश्राम्यति । बच, प्रियतमश्रुतेरतिथिरेवकोपक्रमः क्वचिदयिचेत्तदा मनसि केवलं मज्जति॥ नेत्र के कटाक्षो का इधर उधर चलाना आँख के कानो ही तक म: कुलवधू जनो का हँसना होठो के फरकने ही तक उनके बचन केवल प्राणनाथ अपने पति के कानो ही तक; नये आये हुए पाहुने की भांति क्रोध यदि कभी पाया भी तो मन ही मन मसोस कर रह गई। व्यय में मुक्त हस्त न हो घर के काम काज तथा शिशु पालन मे प्रवीणता आदि उत्तम गुणों की खान हिन्दू ललनाओं का अखण्ड पुण्य और उनका पवित्र चरित्र ही भारत को इस गिरी दशा में भी करावलम्ब देते सर्वथा अधःपात से इसे बचा रहा है। जिनके चरित्र पालन की प्रशंसा में किसी कवि ने ऐसा भी कहा है- "अपि मां पावयेरमाध्वी स्नास्वेतीच्छति जान्दवी' यह साध्वी इमारे में प्राय स्नान कर हमें पविन करे ऐमा जगत् पावनी जान्वी गंगा भी चाहा करती है। .