संसार सुख का सार है हम इसे दुःख का आगार कर रहे हैं ५६ इसलिए कुलीनता की लाज रखने को हमे फॅक फेंक कर पाँव रखना मुनासिब है । अब आप चाहे समझ गये हों कि यह संसार हमे दु.खमय क्यों बोध होता है। संशोधन के क्रम पर इस ढंग को आप छोड़ा नही चाहते तब क्योंकर हो सकता है कि जो दुःखमय है वह सुख रूप हो जाय ? अन्त मे किसी बुद्धिमान् की यह भविष्य वाणी अवश्य चरितार्थ होने वाली है: सदवंशाः प्रलयं सर्वे गमिष्यन्ति दुराशयाः । बुद्धिमानो का सिद्धान्त है सर्वनाशे समुत्पन्ने अद्ध त्यजति परिडतः । अर्द्धन कुरुते कार्य सर्वनाशो हि दुःसहः ॥ खान पान की व्यर्थ की छिलावट इतना अधिक हमारे समाज में बढ़ी हुई है कि इस समय उसका निबाहना महा दुष्कर हो रहा है इसलिए ऐसा मालूम होता है कि अगरेजी शिक्षा के प्रभाव से कुछ दिनो मे हिन्दूपन का जो कुछ आभास मात्र बचा है वह भी न रह जायगा। नई सभ्यता के अनुसार खुदाबक्श ब्रह्मचारी के पवित्र होटलों मे शुद्ध भोजनो की प्रथा प्रचलित होती जाती है, खरबूजे को देख खरबूजा रंग पकड़ता है बल्कि यों कहिये यह फैशन मे दाखिल है। कुलीनो को अपनी कुलीनता का अभिमान बढ़ रहा ही है तब क्या इधर पेड़ा भी छीलते जाइये उधर नई तालीम के ज़ोम मे भरे हुए आपके नौजवान आपकी आँख बरकाय इधर उधर होटलों में भी मुंह मारते रहैं । आपके सामने समाज मे प्रगट करने को कण्ठी या रुद्राक्ष, भस्म और त्रिपुण्ड रमाय दो घण्टे तक पूजा भी करते जाये उधर सभ्य समाज में दाखिल हो शेम्पेन और ह्विस्की पर भी तोड़ करै। हमारी तुद्र बुद्धि मे ऐसा आता है कि ऐसी दशा में कदाचित् ऐसा होने से समाज के न बिगड़ने की अधिक आशा हो सकती है कि एक एक समूह के लोग अपने अपने समूह मे सह-भोजन की प्रथा
पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/५९
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