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पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/६१

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संसार सुख का सार है हम इसे दुःख का आगार कर रहे हैं ६१ जो बुद्धिमान् करते हैं उसी को निर्बुद्धी भी पीछे से करने लगते हैं पर बड़ी खराबी और दुर्गति सहने के उपरान्त । यह निश्चय है कि समाज को जीर्ण और छिन्न-भिन्न करने वाले खान-पान के अनेक ढकोसले अब नही चल सकते। नई उमग की, नूतन सभ्यता में प्रवेश पायी हुई हमारी या आपकी सन्तान सब एकामयी कर डालेगी। मुसलमान, पारसी, अगरेज़, हिन्दू खुला खुली एक साथ बैठ खाद्य अखाद्य सब कुछ खायेंगे जिस बात को अभी छिपाय के कर रहे हैं उसको प्रत्यक्ष में करने में जरा भी न शरमायेंगे। प्राचीन महत्तम ऋषियो की चलाई प्रथा जिसे आपने निरा ढकोसला कर डाला सर्वथा निर्मूल हो जायगी। यह सब श्राप गवारा करेंगे और यह आपको पसन्द न आवेगा कि हिन्दू मात्र या उनमे की एक एक जाति ईर्ष्या द्रोह और मन्द बुद्धि को अलग कर भ्रातृस्नेह की डोरी मे खिंच एक साथ खायें पिये और अपने देश या जाति की तरक्की मे दत्तचित्त हो यथेष्ट हित साधन करे। बटलोही के चावल की टटोल की भाँति दो एक बात हमने आपके भ्रष्ट समाज का यहाँ दिखलाया जिससे चित्त धिनाय यही कहने का मन होता है कि ससार केवल दुःख रूप है। काहे को हम समाज के अनेक इस तरह के कोढ जो दुःख और क्लेश दे रहे हैं उसे दूर हटाय अनन्त सुख सन्दोह का हेतु उसे करेंगे । अस्तु, अब इस लेख को राड़ो के चरखे की तरह कहाँ तक ओटते चले जाये साराश यह कि ससार सुख सन्दोह का परमोत्कृष्ट मन्दिर है हम अपने कुढंग और कुचरित्र से अपवित्र कर अपने जीवन को दुःख पूर्ण कर रहे हैं । सितम्बर, १८६५