उपनिषधः परिपीता गीतापि च हंत मतिपथं नीता।
तदपि न हा विधुवदना मानससदनाद्वहिर्याति॥३९॥
उपनिषधौंको पान (अर्थात् श्रवण) किया और भगवगीताको मतिके मार्गको पहुंचाया अर्थात् उसका भी भली भांति परिशीलन किया; परंतु हाय, इतना करने पै भी यह चंद्रवदनी (भामिनी) मेरे मन रूपी गेहसे बाहर नहीं जाती? (गीतादिक से मनुष्यको ज्ञान उत्पन्न होता है और विषयवासना छूट जाती है परन्तु मेरा अनुराग आधिकाधिक बढ़ताही जाता है यह भाव)
अकरुणहृदय प्रियतम मुंचामि त्वामितः परं नाहम्।
इत्यालपति करांबुजमादायाली जनस्य विकला सा॥४०॥
"हे निर्दय प्रियतम अब आज से मैं तुम्हैं न छोडूंगी (अर्थात् फिर विदेश न गमन करने दूंगी)" इस प्रकार वह व्याकुलनायिका सखी के करकमल को पकडकर कहती है (नायिका का संदेश लेकर विदेशवासी नायक के प्रति यह दूती का वचन है बिरह से नायिका[१] को उन्माद उत्पन्न हुआ है इससे वह सखियों कोही पति समुझ इस प्रकार की बातें कहती है यह भाव-नायिका की ऐसी दशा वर्णन करके शीघ्र ही उसे मिलिए यह सूचित किया)
- ↑ 'प्रोषितपतिका नायका।