रक्तं च पथिकहृदयं कपोलपाली मृगीदृशः पांडुः॥८६॥
मेधक प्रकट होनेसे आकाश कज्जलके समान मलिन, पथिकका हृदय अनुरागपूर्ण (और) कुरंगनयनी (नायिका) का कपोल प्रदेश पांडुवर्ण हुआ (इसमें भी 'समुच्चय ' अलंकार है)
इदमप्रतिमं पश्य सरः सरसिजैर्वृतम्।
सखे मा जल्प नारीणां नयनानि दहन्ति माम्॥८७॥
हे सखे! कमल से आच्छादित किए गए इस अद्वितीय सरोवरको देख, (इस प्रकार बोलनेवालेको उसका मित्र उत्तर देता है कि तू ऐसी) जल्पना न कर (कारण, कामिनी के नेत्र समान प्रफुलित कमलपुष्प अवलोकन करतेही) मुझे स्त्रीजनोंके नयन दहन करते हैं!
सुंचसि नायापि रुषं भामिनिमुदिरालिरुदि-
याय। इति सुदृशः प्रियवचनैरपायि नयनाब्जकोण शोणरुचिः॥८८॥
हे भामिनि! मेघमाला (आकाश में) प्रादुर्भूत हुई (परंतु तू) अद्यापि रोष नही त्यागती है, इस प्रकार कहे गए प्रियतम के वचनों ने, सुलोचनी (नायिका) के नयनकमल के कोण में उत्पन्न हुई अरुणताको निःशेप किया।
आलोक्य सुन्दरि मुखं तव मन्दहासं,