पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१२८

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(१०८)
[शृंगार-
भामिनीविलासः।

चंचल गयुक्तकमल के समान चपलनयनौंवाला उस (कामिनी) का मुख यदि दर्शन को मिले तो काम क्रुद्ध होकर क्या करसकैगा?

शतकोटिकठिनचित्तः सोऽहं तस्याः सुधैक-
मयमूर्तेः। येनाकारिषि मित्रं सुविकलहृदयो
विधिर्वाच्यः १०२॥

जिसने उस सुधास्वरूप (नायिका) की मित्रता संपादन की वही विधिवंचित, विकलहृदय और वज्र के समान कठोर चित्तवाला मैं हूं (नायिका को प्रीतिपात्र बनाकर कुछ काल के अनंतर मूर्खतावश उसका त्याग कर पश्चात् पश्चाताप करनेवाले नायक की उक्ति है)

श्यामलेनांकितं वाले भाले केनापि लक्ष्मणा।
मुखं तवांतरासुप्तभृंगफुल्लांबुजायते १०३

हे बाले! भालमें श्यामवर्णके मनोहर चिन्ह से चिन्हित तेरा मुख, मध्य में सोए हुए भमर संयुक्त कुसुमित कमलके समान शोभायमान है।

अद्वितीयं रुचात्मानं मत्वा किं चन्द्र हृष्यसि।
भूमंडलमिदं मूढ केन वा विनिभालि तम्॥१०४॥

हे चन्द्र! (मैं बडा) कांति (मान हूँ इस विचार) से अपनेको अद्वितीय मान क्यों हर्पित होता है? (अरे) मूढ!