तरां निषेविता। तथा तथा तत्त्वकथेव सर्वतो
विकृष्य मामेकरसं चकार सा[१]॥१६५॥
ज्यों ज्यों फिर मैं ने अनुरागपूर्वक भली भांति कमलनयनी (नायिका) सेई त्यौं त्यों उसने ब्रह्मज्ञानकथाके समान मुझे सर्व वस्तुमात्र से आकर्षण कर अर्थात् सबसे मेरा मन हटाय एक (शृंगार) रसमय किया।
हरिणीप्रेक्षणा यत्र गृहिणी न विलोक्यते।
सेवितं सर्वसंपद्भिरपि तद्भवनं वनम्॥१५६॥
जहां मृगलोचनी गृहिणी दृष्टिगोचर नहीं वह गृह सर्व संपत्तिसे सेवन किया गया भी वन है।
लोलालकावलिचलन्नयनारविंदलीलावविदितलोकविलोचनायाः।
सायाहनि प्रणयिनो भवनं व्रजंत्याश्चेतो न कस्य हरते गतिरंगनायाः॥१५७॥
चंचल अलकपंक्ति (और) चपल नयनकमलौं की लीला से मनुष्यों के नेत्रों को वश करनेवाली, सायंकाल प्रियतम के गृह को गमन करनेवाली कामिनीकी गति किसके मन को नहीं हरण करती?
दंतांशुकांतमरविंदरमापहारि सान्द्रामृतं वदन-
मेणविलोचनायाः। वेधा विधाय पुनरुक्तमिवें-
दुबिंबं दूरीकरोति न कथं विदुषां वरेण्यः॥१५८॥
- ↑ 'वंशस्थ' छंद है।