ज्ञानीजनों में श्रेष्ठ, ब्रह्मदेव हरिणनयनी (कामिनी) के दंत की किरणों से मनोहर, कमलकी शोभाको हरण करने वाले, अमृतके अनुपमस्थल मुखकी रचना कर चन्द्रबिंबको पुनरुक्त के समान क्यों नहीं दूर करता है? (एक बार मगाक्षीका मुखरूपी चंद्र निर्माण करके इस आकाशस्थ द्वितीय चंद्रमाको, जैसे कविलोग पुनरुक्तिको निकाल डालते हैं, क्यों नहीं दूर करता? अर्थात् चंद्रमाका काम तो मुख करही रहा है. फिर उसके उत्पन्न करने से लाजही क्या? केवल एक वस्तुकी दूसरी प्रतिमामात्र है)
सानुकंपाः सानुरागाश्चतुराः शीलशीतलाः।
हरंति हृदयं हंत कांतायाः स्वांतवृत्तयः॥१५९॥
कामिनी के अंतःकरण की, दयाशील, अनुरागी, चतुर (और) शीलशीतल, वृत्ति मेरे हृदय को हरण करती है।
अलकाः फणिशावतुल्यशीला नयनांता परिपुंखितेषुलीलाः।
चपलोपमिता खलु स्वयं या बत लोके सुखसाधनं कथं सा॥१६०॥
(जिसकी) अलकावलि भुजंगशावक के समान स्वभाव वालीहै; (जिसके) नेत्रकटाक्ष सपुंख बाण की लीला (को अनुकरण करनेवाले) हैं; जो स्वयं विद्युलता से उपमा दी जातीहै हा! वह (नायिका) इस लोक में किस प्रकार सुखकारक (हो सकती) है?