वदने तव यत्र माधुरी सा हृदि पूर्णा करुणा च कोमलेऽभूत्।
अधुना हरिणाक्षि हा कथं वा गतिरन्यैव विलोक्यते गुणानाम्॥१६१॥
हे मृगनयने! जिस वदन में वह माधुरी, और कोमल हृदय में (वह) पूर्ण करुणा रही[१], हाय अब (वहीं) गुणोंकी अन्य अर्थात् विपरीत गति कैसे अवलोकन की जाती है? (प्रथम की दया और वचनों की माधुर्यता के स्थानमें अब तू ने वाकटुता और हियकी कठोरता किस प्रकार अंगीकारकी? यह भाव)
अनिशं नयनाभिरामया रमया संमदिनो मुखस्य ते।
निशि निःसरदिदिरं कथं तुलयामः कलयापि पंकजम्[२]॥१६२॥
सदैव नेत्रौंको आनंद देनेवाली शोभासे गर्वित तेरे मुख की (एक) कलाकी भी, निशा में नाश होती है सौंदर्य्यता जिसकी ऐसे कमल से, हम किस प्रकार तुलना करै? (मुख सदैव शोभायमान रहता है और कमल रात्रिमें मुकुलित होने से शोभाहीन होजाता है इससे दोनौंकी तुलना नहीं हो सकती यह भाव। उपमेय मुखसे उपमान कमल में न्यूनता सूचित की इससे 'व्यतिरेक' अलंकार हुआ)
अंगैः सुकुमारतरैः सा कुसुमानां श्रियं हर-