करके जिसको किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं उसे दान देनेवा ले धनमदमत्त राजा अथवा धनिक का वृत्तांतहै)
शृण्वन् पुरः परुषगर्जितमस्य हंत।
रे पांथ विस्मितमना न मनागपि स्याः॥
विश्वार्तिवारणसमर्पितजीवितोऽयं।
नाकर्णितः किमु सखे भवताऽम्बुवाहः॥३७॥
हे पथिक! इस कठोर गर्जना को सन्मुख श्रवण कर तू अपने मन में किंचित भी विस्मित नहो! सखे? संसार दुःख शमनार्थ निज जीवन को अर्पण करने वाले इस अंबुवाह [जलधर] का नाम क्या तूने कभी नहीं सुना है! (परम परोपकारी परंतु कटुवादी सत्पुरुष का वृत्तांत है)
सौरभ्यं भुवनत्रयेऽपि विदितं शैत्यंतु लोकोत्तरं।
कीर्तिः किंच दिगंगनांगणगता किंत्वेतदेकंशृणु॥
सर्वानेव गुणानियं निगिरति श्रीखण्ड ते सुन्दरान्।
उज्झंती खलु कोटरेषु गरलज्वालां द्विजिह्वावली३८
हे चंदन! तेरी सुगंध त्रैलोक्य मे विदित है, तेरी शीतलता सब से श्रेष्ठ है, तेरी कीर्ति दशौं दिशाओं में व्याप्त, है परंतु इतनी एक बात सुन कि तेरे खोखलवासी, विष उगलनेवाले, सर्प इन तेरे सर्व सुन्दर गुणों को नाश करते हैं (सत्पुरुष के सद्गुण दुष्ट समागम से लोप हो जाते हैं)